2122 2122 2122
इश्क में, व्यापार में या दोस्ती में
दिल दिया है हमने अपना पेशगी में
बूँद भर भी आब काफी तिश्नगी में
एक जुगनू भी है दीपक तीरगी में
ठोकरें खाकर नहीं सीखा सँभलना
क्या मज़ा आएगा ऐसी जिन्दगी में
दर्द,आंसू,बेबसी के बाद भी क्यों
मन रमा रहता हमेशा आशिकी में
किस जमाने का है राणा आदमी ये
जो मुहब्बत ढूंढता है आदमी में
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अजय तिवारी उत्साहवर्धन एवं मार्दर्शन के लिए सादर आभार
आडरणीय बृजेश भाई साहब,हौंसलाफ़ज़ाई के लिए तहेदिल शुक्रिया
आदरणीय सतविंदर जी, अच्छे अशआर हुए हैं, हार्दिक बधाई.
मन रमा रहता हमेशा आशिकी में > मन रमा रहता है हरदम आशिकी में
सादर
वाह आदरणीय बहुत ही खूब ग़ज़ल कही..सादर
आदरणीय समर सर,यही बात कहने की कोशिश थी। बहुत बहुत आभार पुनः आकर मार्गदर्शन करने के लिए। अब मैं परिष्कार कर रहा हूँ।सादर वन्दन
अब इस मिसरे को थोड़ा सा और बदल देते हैं :-
'इश्क़ में व्यापार में या दोस्ती में'
मेरा सुझाव है कि मतले का ऊला मिसरा ये रखें
आदरणीय सुरेन्द्र भाई जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया
आदरणीय समर कबीर सर सादर नमन,मतले का उला मिसरा पहले यही लिया था जो आपने सुझाया,इस तरीके से अर्थ की व्यापकता बनेगी इस लिए ऐसा किया। यदि यह गलत है तो मैं इसे पुनः बदल दूँ? तीसरे शेर को आपके सुझाव ने और सुंदर बना दिया है। पुनः आपके आगमन के बाद सभी त्रुटियों को संशोधित करूँगा,आपकी प्रतीक्षा में.. सादर आभार
आद0 सतविंदर राणा जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। आद0 समर साहब की बातों का संज्ञान लीजियेगा। इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई आपको।
जनाब सतविन्द्र कुमार 'राणा' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले का ऊला मिसरा यूँ होना चाहिए :-
'इश्क़ के व्यापार में या दोस्ती में'
हुस्न-ए-मतला में 'जुगनूँ' को "जुगनू" कर लें ।
तीसरा शैर यूँ कर सकते हैं :-
'ठोकरें खाकर नहीं सीखा सँभलना
क्या मज़ा आएग ऐसी ज़िन्दगी में'
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