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जो अपने ख्वाब के लिए जाँ से गुज़र गए

221 2121 1221 212

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जो अपने ख्वाब के लिए जाँ से गुज़र गए

खुद ख़्वाब बनके सबके दिलों में उतर गए

 

थोड़ा असर था वक्त का थोड़ी मेरी शिकस्त

जो ज़ीस्त से जु़ड़े थे वो अहसास मर गए

 

रिश्तों पे चढ़ गया है मुलम्मा फ़रेब का

अब जाने रंग कुदरती सारे किधर गए

 

ये सोच ही रहा था कि मैं क्या नया लिखूँ

फिर से वही चराग़ वरक़ पर उभर गए

 

बिखरे हुए थे दर्द तुम्हारी किताब में

दिल से गुज़र के वो मेरी आँखों में भर गए

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on April 13, 2017 at 9:19am
आप सब से.मुआफी चाहूँगा कि मैं देर से आ रहा हूँ रचना की सराहना के लिए आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया
Comment by Mahendra Kumar on March 5, 2017 at 12:44pm
थोड़ा असर था वक्त का थोड़ी मेरी शिकस्त
जो ज़ीस्त से जु़ड़े थे वो अहसास मर गए ...वाह!
बहुत शानदार ग़ज़ल है आ. शिज्जु "शकूर" सर। शेर दर शेर मुबारक़बाद क़ुबूल कीजिए। सादर।
Comment by नाथ सोनांचली on March 4, 2017 at 7:07am
आदरणीय शिज्जू शकूर जी सादर अभिवादन। बेहद उम्दा अशआर के साथ उम्दा गजल। दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 2, 2017 at 7:27pm
आ0 शिज्जु सकूर साहिब बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई कुबूल करें।
बिखरे हुए थे दर्द तुम्हारी किताब में
दिल से गुज़र के वो मेरी आँखों में भर गए
बहुत सुंदर शेर।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 1, 2017 at 6:31pm
आदरणीय शिज्जु जी उम्दा ग़ज़ल हुयी है ये दो शेर मुझे बिशेस रूप से पसंद आये
रिश्तों पे चढ़ गया है मुलम्मा फ़रेब का
अब जाने रंग कुदरती सारे किधर गए
बिखरे हुए थे दर्द तुम्हारी किताब में
दिल से गुज़र के वो मेरी आँखों में भर ग
रैना पर ढेर सारी बधाई के साथ सादर
Comment by Mohammed Arif on March 1, 2017 at 5:30pm
आदरणीय शिज्जू शकूर जी आदाब, बहुत शानदार ग़ज़ल के लिए मुबारखबाद क़ुबूल करें ।
Comment by Gurpreet Singh jammu on March 1, 2017 at 2:13pm
बहुत बढिआ ग़ज़ल आदरणीय शिज्जू शकूर जी...पहला, दूसरा और आखरी शेअर खास तौर पर पसंद आए....और जिस सरलता से आप ने इस बहर को निभाया है..हर लफ्ज अपनी जगह पर एकदम फिट..सलाम है आपको
Comment by Sushil Sarna on March 1, 2017 at 1:17pm

जो अपने ख्वाब के लिए जाँ से गुज़र गए
खुद ख़्वाब बनके सबके दिलों में उतर गए

थोड़ा असर था वक्त का थोड़ी मेरी शिकस्त
जो ज़ीस्त से जु़ड़े थे वो अहसास मर गए

आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब दिल के जज़्बातों को बड़ी ही मासूमियत से आपने लफ़्ज़ों में ढाला है ....
हर दर्द पे आह निकलती है ,
हर शेर पे वाह निकलती है
ऐ सांस कुछ देर तो ठहर तू
वो सामने से चाह निकलती है
... इस बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।

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