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March 2016 Blog Posts (166)

ग़ज़ल

2122 1122 1122 22 (112)

लोग मिलते नहीं रिश्तो को निभाने वाले 

बीच मँझधार में कश्ती को बचाने वाले ||१||

कौन कीमत समझते हैं किसी की खुशियों की 

लोग मिलते हैं यहाँ ख्वाब चुराने वाले ||२||

जानते हैं मगर इस दिल को कैसे समझायें

लौट के आते नहीं छोड़ के जाने वाले ||३||

आँख में हो अना बाक़ी यही तो दौलत है 

हाँ मगर देखे हैं कागज को कमाने वाले ||४||

ज़िन्दगी भर हमे रखते रहे अंधेरों मे॥

रोज तुरबत पे आके शमआ जलाने वाले॥…

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Added by Rama Verma on March 18, 2016 at 4:00pm — 7 Comments

ग़ज़ल--क्यूं कभी मेरी किसी से या खुदा बनती नहीं।

२१२२ २१२२ २१२२ २१२



क्यूं कभी मेरी किसी से या खुदा बनती नहीं।

आपने मेरे लिए कोई खुशी सोची नहीं ।



लोग जो अच्छे है मुझको सोच लेते हैं बुरा।

क्या मेरी नादानियों की आदतें अच्छी नहीं ।



मैंने उनसे सिर्फ अपनी भावनाएँ बाँटी थी।

बेवजह गुस्सा ये उनका क्या गलतफहमी नहीं।



मान ली मैंने चलो मुझसे खता कुछ हो गयी।

हो गयी अनजाने में अब क्या मुझे माफी नहीं।



सीख में आकर जमाने की किया है फैसला।

बात की दहलीज तक तो आप पहुँचे भी… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on March 18, 2016 at 8:10am — 3 Comments

होली, का त्योहार

रंगो का त्योहार है होली आओ मिलकर खेले

भेद भाव सब दूर भगाकर आओ होली खेले ॥

जो अपने भूले भटके हैं

धर्म दीवारों से बिछड़े हैं

और दूर देश में अटके हैं

कड़वी पर यह सच्चाई है

एक प्यार भरा संदेशा है

यह आज सुनहरा मौका है

रंगो का त्योहार है होली आओ मिलकर खेले

भेद भाव सब दूर भगाकर आओ होली खेले ॥

दुख सुख का यह जीवन है

यहाँ मिलकर सबको रहना है

हमें जीवन बाधा से लड़ना है

दुश्मन से देश को बचाना है

हमें मिलकर आगे…

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Added by Ram Ashery on March 18, 2016 at 8:00am — 1 Comment

केक्टस मे फूल

पड़ोस के गुप्ता आंटी के घर से आती तेज आवाज़ से तन्मय के कदम अचानक बालकनी मे ठिठक गये। अरे! ये आवाज़ तो सौम्या की है …
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Added by नयना(आरती)कानिटकर on March 17, 2016 at 11:30pm — 12 Comments

स्त्रीत्व

"वो सफर लगातार चलता ही रहा.....

वो रस्ते बस आगे, और आगे ही बढ़ते रहे।

मैं कभी ज़मीन पर तो कभी आसमान पर,

दिन भर बुने अपने ख़ाबों की लड़ी सजती रही।

अपने ही वजूद को कभी बच्चों में, कभी घर की दीवारों में,

तो कभी उनकी आँखों में तलाशती रही.......

जानती हूँ सब हैं मेरे, पर.... फिर भी,

मैं अपने ख़ाबों के साथ अकेली सफर तय करती रही।

और ये आस ये उम्मीद बांधती रही कि,

मेरे अस्तित्व से निरंतर झरती जीवन धारा को

ये समाज आज नहीं तो कल सहृदय अपनायेगा।…

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Added by Monika Jain on March 17, 2016 at 6:30pm — 3 Comments

प्रतिशोध (लघुकथा)

शाम का धुंधलका फ़ैल रहा था, वह गाड़ी में पीछे बैठी थी, रोज़ की तरह रास्ते में वही मकान आने वाला था,  उसका दिल घबराना शुरू हो गया,  उसने अपना एक हाथ दूसरे हाथ से थाम लिया और मन ही मन बुदबुदाने लगी, "ये भेड़िये क्यों अँधेरी रातें खत्म नहीं होने देते?"

 

उसने आँखें बंद करने को सोचा ही था कि वो मकान आ ही गया और गाड़ी उस मकान को पार करने लगी, आज उसकी आँखों ने बंद होने से इनकार कर दिया|

 

उसने देखा मकान के मुख्य द्वार पर उसके शिक्षक के नाम की तख्ती थी, जिससे वो पढने जाती थी,…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 17, 2016 at 4:30pm — 6 Comments

झूठ मिटता गया देखते देखते (ग़ज़ल)

२१२ २१२ २१२ २१२

 

झूठ मिटता गया देखते देखते

सच नुमायाँ हुआ देखते देखते

 

तेरी तस्वीर तुझ से भी बेहतर लगी

कैसा जादू हुआ देखते देखते

 

तार दाँतों में कल तक लगाती थी जो

बन गई अप्सरा देखते देखते

 

झुर्रियाँ मेरे चेहरे की बढने लगीं

ये मुआँ आईना देखते देखते

 

वो दिखाने पे आए जो अपनी अदा

हो गया रतजगा देखते देखते

 

शे’र उनपर हुआ तो मैं माँ बन गया

बन गईं वो पिता देखते…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 16, 2016 at 7:45pm — 20 Comments

पहन पोशाक गांधी की - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

1222    1222    1222    1222

**********************************



जिसे  राणा सा  होना था  वो  जाफर बन गया यारो

सियासत  करके  गड्ढा भी  समंदर बन गया यारो ।1।



हमारी  सीख कच्ची  थी  या उसका रक्त ऐसा था

पढ़ाया  पाठ  गौतम  का सिकंदर  बन गया यारो ।2।



करप्सन  और  आरक्षण  का  रूतबा   देखिए ऐसा

फिसड्डी था जो कक्षा में वो अफसर बन गया यारो ।3।



तरक्की  है कि  बर्बादी  जरा  सोचो नए  युग की

जहाँ बहती नदी  थी इक वहाँ घर बन गया यारो ।4।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 16, 2016 at 10:48am — 18 Comments


प्रधान संपादक
कुल्हाड़ियाँ और दस्ते: लघुकथा:

हॉल कमरे के बीचों बीच मौजूद गोल मेज़ पर आज फिर गंभीर मंत्रणा का एक और दौर जारी थाI विभिन्न देशों से आए प्रतिनिधिमंडल काफ़ी दिन गुज़र जाने के बाद भी किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाने में असफल रहे थेI जब भी उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई देती तो कोई-न-कोई नई समस्या सामने आ खड़ी होतीI माहौल में निराशा तारी होने लगी थी जो सभी के चेहरों से साफ़ …
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Added by योगराज प्रभाकर on March 16, 2016 at 10:30am — 22 Comments

मत्तगयन्द सवैया

आय गयो मधुमास सखी! प्रिय की अब याद सताय सदा रे।
रात कटे नहि प्रीतम के बिन जोगन हो गइ पंथ निहारे।
सौतन के घर जाय बसे प्रिय लीन्हि नही सुधि मोहि बिसारे।
नैनहि नीर बहे अब तो मन धीर धरे नहि आज पुकारे।

-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by रामबली गुप्ता on March 15, 2016 at 8:42pm — 4 Comments

कुण्डलिया छंद

मधु मधुऋतु मधुकाल हे! कुसुमाकर ऋतुराज।
रंग-बिरंगे पुष्प हैं, स्वागत में सुर-साज।।
स्वागत में सुर-साज, आज मन नाचे गाये।
अंग-अंग मदमात, पात नव तरु पर आये।।
वसुधा पुलकित आज, सजी जैसे नूतन वधु।
कोयल गाये राग, मधुप इतराएं पी मधु।।

-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by रामबली गुप्ता on March 15, 2016 at 7:39pm — 5 Comments

दीवार

हमको खबर है कितने, हम बेखबर हो गए

अपने ही घर से कितने बाशिंदे बेघर हो गए



जब हम एक थे तो सारा शहर एक था

जो राहें हुईं अलग हमारी तो सब कुछ बंट गया

और अब तो आलम ये है कि ये सारा शहर दो खेमों में बंट चुका है

आधे इधर हो गए आधे उधर हो गए

अपने ही घर से कितने बाशिंदे बेघर हो गए-2



हर महफिल में सन्नाटा है हर शै सूनी हो गई है

मंज़िल खोती जाती है राहें दूनी हो गई हैं

सदमे में हर कोई यहॉँ सदमे में उधर भी हैं

लफ़्ज़ शोला उगलते हैं आँखें खूनी हो गई…

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Added by Ashish Painuly on March 15, 2016 at 6:30pm — 2 Comments

सोनचिरैया (लघुकथा)

“तुम साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती, विमला की माँईं, तुम्हे शादी करवानी भी है या नहीं? एक से एक रिश्ते बताये तुमको... तुम हो कि किसी के कान छोटे, किसी के होठ मोटे बता रिश्ते ठुकराती ही चली जा रही हो!” वामन काकी के सब्र का बाँध टूट गया था आज तो. “पूरे गाँव के रिश्ते करवाएं हैं मैंने. कोई कह तो दे किसी की भी बिटिया अपने घर में सुख से ना है, या किसी भी घर में बेमेल बहू आई है आज तक.”

“ना, ना, काकी, तुम तो बेकार में लाल-पीली हो रही हो. मेरा वो मतलब ना था,” ठकुराइन मक्खन सी नरमी आवाज़ में लाकर बोली.…

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Added by Seema Singh on March 15, 2016 at 6:00pm — 8 Comments

गजल

22  22  22  22 

खंजर या तलवार नहीं हूँ

मैं घातक हथियार नहीं हूँ

अपनी शर्तों पर जीती हूँ

क्यूँ कहते खुद्दार नहीं हूँ

मैं नदिया की शीतल धारा

जलता सा अंगार नहीं हूँ

ईश्वर की अनमोल कृति हूँ

औरत हूँ लाचार नहीं हूँ

उज्जवल रश्मि हूँ सूरज की

रातों का अंधियार नहीं हूँ

स्वाभिमान मुझे है प्यारा

मैं दुनिया में भार नहीं हूँ

मुझसे ही परिवार है…

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Added by Rama Verma on March 15, 2016 at 5:30pm — 11 Comments

तलब / लघुकथा

" पापा मुझे कुछ रूपये चाहिए " ड्यूटी पर निकलने को तैयार भँवरलाल , बेटे की आवाज पर चौंक उठे ।

" कितने बार कहा , ड्यूटी पर जाते वक्त मत टोका करो , अभी तो दिये थे पिछले हफ्ते दस हजार ,उसका क्या हुआ ? "

" दस हजार से होता क्या है पापा ! सारे खर्च हो गये " नजरें चुराते हुए उसने कहा ,तो भँवरलाल ठठा कर हँस पड़े ।

" बता कितना चाहिए ? " जेब में पर्स टटोलते हुए पूछा ।

" सिर्फ चालिस हजार "

" क्या ,इतने सारे रूपये ! कौन सा ऐसा काम आन पड़ा ? "

" उससे आपको मतलब नहीं , बस आपको देना ही…

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Added by kanta roy on March 15, 2016 at 4:00pm — 13 Comments

कहर (लघुकथा) राहिला

पकी फसल पर असमय बरसात और ओलों के कहर ने किसानों के पेट और कमर पर जो लात मारी थी। उसी का सर्वे चल रहा था। कौन किस हद तक घायल है उसी हिसाब से मुआवजा मिलना था। सो,दो सरकारी मुलाजिम एक पुरवा से दूसरे पुरवा जा जाकर कागज़ रंग रहे थे।

"भाग यहाँ से साsssले, यहाँ आया तो तेरी खैर नहीं। हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की? तेरा मन नहीं भरा मेरे बाल बच्चे खा कर? और कितनों को खायेगा?आ..ले,खाले...सब को खाजा..आजा,आ के दिखा तुझे अभी मजा चखाता हूं"कह कर वो अंधाधुंध पत्थर मारने लगा। उसकी विक्षिप्त सी हालत देख…

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Added by Rahila on March 15, 2016 at 1:30pm — 31 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हँसी दो चार दिन की है...(ग़ज़ल) //डॉ. प्राची

1222.1222.1222.1222



हैं बस दो-चार दिन आँसू, हँसी दो-चार दिन की है।

सँजोयें क्या भला, जब ज़िन्दगी दो-चार दिन की है?



भले हो काँस्य या कञ्चन ये कारागार टूटेगा

यहाँ पर श्वास केवल बंदिनी दो-चार दिन की है।



अँधेरी रात से लड़ने को इक दीपक सहेजें खुद

मिली जो रहमतों की रौशनी, दो-चार दिन की है।



पिये हर घूँट में नदिया, वही लहरों में इतराए

समंदर की भला कब तिश्नगी दो-चार दिन की है?



मेरी आँखों में गर देखो, तो पत्थर दिल पिघल जाए

मुझे… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on March 15, 2016 at 12:41pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - हवादिस पूछने आते हैं अब मेरा पता मुझसे ( गिरिराज भंडारी )

1222        1222      1222        1222

न जाने बे खयाली में हुआ है क्या बुरा मुझसे

हवादिस पूछने आते हैं अब मेरा पता मुझसे

 

मुहब्बत हो कि नफरत हो , झिझक कैसी है कहते अब  

हया कैसी है डर कैसा , बयाँ कर दे, जता मुझसे

 

अगर इनआम देना है , कहीं से भी शुरू कर तू

सजा का वक़्त गर आये तो फिर कर इब्तिदा मुझसे

 

न कह मुझसे जलाऊँ मै चरागों को कहाँ, कैसे

जलाऊँगा , अभी ठहरो , मुख़ालिफ़ है हवा मुझसे

 

समझ पाते तो अच्छा…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 15, 2016 at 10:49am — 5 Comments

विभक्त चिड़िया (लघुकथा)

नीलामी में चित्र उस व्यक्ति ने खरीद ही लिया, उस चित्र का सौन्दर्य ही कुछ ऐसा था कि उसकी नीलामी में देश के कई बड़े नेता, उद्योगपति, शिक्षाविद, कलाकार, लेखक और बुद्धिजीवी आये थे|

उसने धन देकर चित्र हाथ में लिया और देखा| एक हरे-भरे बगीचे की आकृति देश के मानचित्र के समान थी, बगीचे में एक हाथ में पुस्तक लिए कुछ शिक्षाविद थे, एक हाथ में सफ़ेद झंडे फहराते कुछ बच्चे थे, कुछ उद्योग थे जिनकी गगनचुम्बी चिमनियाँ थी, कुछ धनवान धन बाँट रहे थे, आकाश में सूर्योदय के केसरिया-नारंगी रंग की छटा बिखरी हुई…

Continue

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on March 15, 2016 at 9:30am — 1 Comment

हे पथिक (अतुकान्ति कविता)

हे पथिक!

कुछ देर ठहर।



ले स्वास ,बांध आस

चलना ही तेरा काम

पर चलने का उद्देश्य

फिर सन्धान

चलते-चलते थका हुआ

उद्देश्य से भटका हुआ

कर तो तनिक आराम



हे पथिक!

कुछ देर ठहर।

कुछ सोच!

तूने जो अपना

पन्थ चुना है

सोच तो क्या

तू ठीक चला है?

या वह पन्थ ही

तुझको भटकाता

हुआ आगे बढ़ा है



पूरा रास्ता

तू भरमाया

खोता चला तू

न कुछ पाया

अब तो अपना

ध्येय बनाले

उस की लौ… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 14, 2016 at 10:30pm — 2 Comments

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