आदरणीय साथिओ,
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बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, बधाई आपको आ
स्वयंवर
अपनी आत्मनिर्भर, सुन्दर, योग्य, और सुशील पुत्री के लिए उसके स्तर का वर खोजने में पिता ने अपनी पूरी ताकत लगा दी पर कहीं भी बात नहीं बनी । अवसादग्रस्त होते पति की दशा जब पत्नी से नहीं देखी गई तो एक दिन साहस बटोरकर वह पुत्री से बोली,
‘‘ क्या बात है बेटी, कल जिसे देखा वह लड़का तो पद में तुम से बड़ी नौकरी में है, सुन्दर भी है, फिर भी तुम्हें पसंद नहीं आया? इसके पहले, उद्योगपति के इंजीनियर बेटे और विद्वान प्रोफेसर के डीएसपी बेटे को भी तुमने पसंद नहीं किया?‘‘
‘‘हाॅं ! वे सचमुच बड़े पदाधिकारी, सम्पन्न या विद्वान हैं ।‘‘
‘‘ तो , संकोच किस बात का है जो अब तक मौन ...?‘‘
‘‘ माॅं ! मैं ‘मनुष्य‘ को ही वरण करूंगी । ‘‘
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीया, इस में अनकहा यही है कि जिन पात्रों का अवलोकन किया गया है वह भले ही संपन्न और प्रतिष्ठित परिवारों से हैं पर बातचीत के दौरान उनमें मानवीयता के गुण नहीं पाए गए यद्यपि वे मनुष्य के रूप में अवश्य थे। सम्पन्नता और विद्वत्ता उनके परवारों से जुडी है ,परन्तु पात्रो की परख तो उनके व्यक्तिगत व्यवहार से ही हो सकती है। मनुष्य शरीर में यदि मनुष्य जैसा आचरण न किया जाय तो वे तो पशुओं की श्रेणी में भी नहीं कहे जा सकते। सादर।
इस कथा में अनकहा क्या है? क्या उद्योगपतियों या विद्वान प्रोफेसरों के पुत्र मनुष्य नहीं होते डॉ टी आर सुकुल जी?
आदरणीय महोदय, इस में अनकहा यही है कि जिन पात्रों का अवलोकन किया गया है वह भले ही संपन्न और प्रतिष्ठित परिवारों से हैं पर बातचीत के दौरान उनमें मानवीयता के गुण नहीं पाए गए यद्यपि वे मनुष्य के रूप में अवश्य थे। सम्पन्नता और विद्वत्ता उनके परवारों से जुडी है ,परन्तु पात्रो की परख तो उनके व्यक्तिगत व्यवहार से ही हो सकती है। मनुष्य शरीर में यदि मनुष्य जैसा आचरण न किया जाय तो वे तो पशुओं की श्रेणी में भी नहीं कहे जा सकते। सादर।
आदरणीय कथा का आशय नहीं समझ पायी हूँ | इसमें अनकहा क्या हुआ ?
आदरणीया कल्पना भट्ट जी , समय मिलने पर कृपया फिर से पढ़ने का प्रयत्न कीजिए।सादर।
आ.सुकुल जी आपने बहुत अच्छा विषय उठाया है किंतु इसपर अभी लघुकथा बनना शेष है. आयोजन में सहभागिता के लिए बधाई स्वीकार करे
आदरणीया नयना जी , धन्यवाद। मैं सुधार करने का प्रयास करूंगा।
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