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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-13 (विषय: तमाशबीन)

आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,

सादर नमन।
 
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" के 13 वें अंक में आपका स्वागत हैI "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" के पहले बारह आयोजन बेहद सफल रहे। नए पुराने सभी लघुकथाकारों ने बहुत ही उत्साहपूर्वक इनमें सम्मिलित होकर इन्हें सफल बनाया कई नए रचनाकारों की आमद ने आयोजन को चार चाँद लगाये I इस आयोजनों में न केवल उच्च स्तरीय लघुकथाओं से ही हमारा साक्षात्कार हुआ बल्कि एक एक लघुकथा पर भरपूर चर्चा भी हुईI  गुणीजनों ने न केवल रचनाकारों का भरपूर उत्साहवर्धन ही किया अपितु रचनाओं के गुण दोषों पर भी खुलकर अपने विचार प्रकट किए, जिससे कि यह गोष्ठियाँ एक वर्कशॉप का रूप धारण कर गईं। इन आयोजनों के विषय आसान नहीं थे, किन्तु हमारे रचनाकारों ने बड़ी संख्या में स्तरीय लघुकथाएं प्रस्तुत कर यह सिद्ध कर दिया कि ओबीओ लघुकथा स्कूल दिन प्रतिदिन तरक्की की नई मंजिलें छू रहा हैI तो साथिओ, इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है....
 
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-13
विषय : "तमाशबीन"
अवधि : 29-04-2016 से 30-04-2016 
(आयोजन की अवधि दो दिन अर्थात 29 अप्रैल 2016 दिन शुक्रवार से 30 अप्रैल 2016 दिन शनिवार की समाप्ति तक)
(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो  29 अप्रैल दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा)
.
अति आवश्यक सूचना :-
१. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
२. सदस्यगण एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।
३. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
४. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
५. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी लगाने की आवश्यकता नहीं है।
६. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
७. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
८. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है।
९. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं। रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें।
१०. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
११. रचना/टिप्पणी सही थ्रेड में (रचना मेन थ्रेड में और टिप्पणी रचना के नीचे) ही पोस्ट करें, गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी बिना किसी सूचना के हटा दी जाएगी I
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

 प्रदत्त विषय को सार्थक करती रचना , बधाई स्वीकार करें आदरणीय चौथमल जी 

मार्मिक लघुकथा लिखी है अपने आदरणीय चौथमल जी | सच में लोग तमाशबीन ही बने रहते है | बधाई स्वीकारें आदरणीय इस रचना के लिए | 

समाज़ का विकृत चेहरा दिखाती सुंदर कथा।बधाई

प्रथम लघुकथा हेतु सादर बधाई प्रेषित है आदरणीय चौथमल जी जैन, हालाँकि लेखन से कहीं नहीं लग रहा कि प्रथम लघुकथा है| सविनय, उम्मीद करता हूँ कि आपकी और लघुकथाएं भी समय-समय पर हमें लाभान्वित करती रहेंगी| सादर, 

आ. चौथमल जैन जी आपकी रचना दो बार पोस्ट हो गई है। सूचनार्थ
सुंदर कथ्य चयन एवम् सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया!

बढ़िया लानत भेजी है आपने आदरणीय ।बधाई ।

तमाशबीन

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शाम होते ही समाचार बुलेटिन के समय सरदार जी अपने बचपन के दोस्त पंडित जी के घर पहुँच गएI क्योंकि पूरे गाँव में एक  ही टीवी था इसलिए अन्य लोग भी दूरदर्शन पर समाचार देखने के लिए अक्सर पंडित जी के घर आ जाया करते थेI

 

दरअसल, प्रदेश की अमन-शांति को न जाने किसकी नज़र लग गई थीI देखते ही देखते आतंकवाद की आग पूरे प्रदेश में फैल गई थीI दिन दिहाड़े निर्दोष और मासूम लोगों की हत्याएँ रोज़ की बात हो गई थीI कभी भरे बाज़ार में अंधाधुंध गोलिआं बरसा दी जातीं तो कभी बसों से उतार कर लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाताI कभी कहीं बम धमाका कर दिया जाता तो कभी किसी धर्म स्थान में पशु का सिर गिरा दिए जाने की घटना हो जातीI अब तो पुलिस द्वारा निर्दोष युवकों को आतंकवादी बता कर नकली मुठभेड़ में मार देने की घटनाएँ भी सामने आने लगी थींI दोनों समुदायों में यद्यपि आपसी सौहार्द यथावत कायम था, किन्तु हालत से भयभीत अल्पसंख्यक समुदाय का प्रदेश से पलायन भी प्रारंभ हो चुका थाI कई बरस बीत जाने के बाद भी यह सिलसिला रुकने का नाम ही नहीं ले रहा थाI पूरे समाचार बुलेटिन मैं ऐसे समाचारों का ही बोलबाला रहताI     

 

आधे घंटे का समाचार बुलेटिन शुरू हुआ, सभी लोग सांस रोक कर टीवी सेट पर नज़र गड़ाए हुए बैठे थेI आधा समय गुजर जाने के बाद भी प्रदेश से हत्या या हिंसा की कोई खबर नहीं थी, अचानक अपने प्रदेश का नाम सुनते ही उनके चेहरे पर उत्सुकता के भाव गई बुना बढ़ गएI समाचार वाचक ने बताया कि प्रदेश में किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं है जिसे सुनकर दोनों के माथे पर अविश्वास की रेखाएं उभर आईंI फिर खेल समाचार के बाद मौसम का हाल बताया गया और समाचार बुलेटिन समाप्त हो गयाI सरदार जी ने पंडित जी की तरफ देखा और ढीले से स्वर में बोले:

“चलो अच्छा है आज कोई बुरी खबर सुनने को नहीं मिलीI”

“सही कहा, अमन-चैन ही रहे तो अच्छा हैI” टीवी बंद करते हुए बुझे से स्वर में पंडित जी कहाI     

दोनों खामोशी से उठकर दरवाज़े की तरफ बढ़े, और फिर अचानक एक स्वर में बोल उठे:

“अमन चैन तो ठीक है, मगर समाचार का मज़ा नहीं आया आजI”  

 

(मौलिक और अप्रकाशित)

रचनाकाल 1988

जनाब योगराज प्रभाकर जी आदाब,बहुत गहरा चिंतन है इस लघुकथा में,क्या तारीफ़ करूँ,यूँ समझ लीजिये प्रदत्त विषय से पूरा इंसाफ़ किया गया है, अब अगर टी.वी.पर ऐसी घटनाएं नहीं दिखाई जाएँ तो लोगों को मज़ा नहीं आता,लोग जैसे इन चीज़ों के आदी हो गए हैं । बहुत कुछ सीखा आपकी इस लघुकथा से ।दिल की गहराइयों से ढेरों बधाई स्वीकार करें जनाब ।

समसामयिक घटनाक्रम जबकि 1988 में लिखी है ।ये तो आज के समय में भी उतनी ही सटीक है।और ये दिखाती है कि किसी भी कथा का कथानक कैसा होना चाहिए।एक कालजयी रचना।हम नए लोगों को बहुत कुछ सिखाती।हार्दिक बधाई इस अनुपम कृति के लिए।नमन
//“अमन चैन तो ठीक है, मगर समाचार का मज़ा नहीं आया आज।” //__ एक ही तरह का माहौल देखते सुनते रहने से मन उसी का आदी हो जाता है। इस पंचपंक्ति से विषय को उभारते हुए बेहतरीन अनुपम कृति हमें हासिल हुई है, जिसके लिए हृदयतल से आभार सहित उत्कृष्ट सृजन के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको मोहतरम जनाब योगराज प्रभाकर साहब।
स्वस्थ दिखाई देने वाले समाज के ये सफेद-पोश , अपने विचारों में मानसिक विकार की काई को छुपाये रहते है जो अनायास ही मुंह से कहीं भी सभ्य परिवेश में उगल दिया करते है । इस तरह की विकृति किसी ना किसी रुप में ,हम सबमें ही विधमान है इसी कारण से फिल्मों में मारधाड़ को खास तवज्जो दिया जाता है , हमारी ग्राह्यता के कारण ही मसाला फिल्मों की बाढ़ आ गयी है । ऐतिहासिक चरित्र को भी अब नकारात्मक भाव में पोषित की जा रही है ।
आपकी इस लघु-तत्व की कथा में चिंतन का व्यापक परिवेश छुपा है । चेतना को धरातल दिखाता बहुत ही शानदार और कलात्मक लघुकथा की प्रस्तुति हुई है । सादर अभिनंदन आपको इस कालजयी लघुकथा के लिये ।

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