आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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वाह वाह! बहुत ही सुन्दर लघुकथा रची है भाई सुनील वर्मा जी, दिल से बधाईI
(वैसे मैंने किसी ढाबे के बाहर कटा हुआ बकरा टेंगा हुआ नहीं देखा कभीI)
अंग -दान महादान को आपने अपनी कथा का कथ्य बनाया है जो आज के सन्दर्भ में इसके प्रति जागरूकता के लिए बेहद जरुरी भी है . आपका कथानक का चुनाव तो सार्थक होता ही है साथ में शिल्प भी मन को मोह लेता है . कथा वाकई में शानदार बना है ,
वैसे मैं यहाँ सर जी से सहमत हूँ कि ढाबा में लटकता हुआ बकरे का अंग ......! .....नहीं ..नहीं , देगची में पकता हुआ बकरे का अंग जरूर देखा है .... मटन दो प्याजा .........हा हा हा हा
बधाई स्वीकार करें !
आ.सुनील जी विषय को सार्थक करती इस सुन्दर प्रस्तुति के लिये दिल से बधाई स्वीकार करें । आप की रचनाओ का तो हमेशा आतुरता से इंतजार रहता है
जनाब सुनील वर्मा साहिब ,प्रदत्त विषय को दर्शाती अच्छी लघु कथा के लिए ... मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
बहुत नया विषय चुना है आपने अपनी रचना के ताने बाने के लिए ,कथा कहने का ढंग तो निराला है ही आपका ,,हार्दिक बधाई स्वीकार करें इस रचना पर सुनील जी
हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील जी!सदैव की तरह इस बार भी नया विषय लेकर बेहतरीन लघुकथा!आपकी धारदार लेखनी को भविष्य के लिये शुभकामनायें!
आदरणीय सुनील जी, आपकी लघुकथा प्रदत्त विषय को पूर्ण रूप से संतुष्ट कर रही है साथ ही अंगदान के लिए प्रेरित भी कर रही है, इस प्रेरणादायी लघुकथा पर हृदय से बधाई स्वीकार करें.
आदरणीय सुनील वर्माजी, आपकी प्रतुति में कथातत्त्व है. उसे लेकिन कई जगह अनवश्यक विस्तार मिला है. फिर भी रोचकता बरकरार है. लघुकथा के मूलभूत विन्दुओं पर दृष्टि बनी रही है यह अधिक आश्वस्तिकारी है
शुभेच्छाएँ
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