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हार्दिक बधाई आदरणीय माला झा जी!बेहद सशक्त और हृदय स्पर्शी लघुकथा!रंग शब्द को कितनी गहराई से चरितार्थ किया है आपने!लाज़वाब!बेहतरीन प्रस्तुति!
आदरणीया माला जी, एक शानदार कथानक बुना है आपने और प्रवाहपूर्ण लघुकथा भी लिखी है. इस शानदार प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर
"मतलब?" "मतलब ये कि साड़ियाँ बेचते बेचते ,उनके इंद्रधनुषी रंगों से खेलते खेलते दुनियाँ के रंग ही भूल गया था।"
मीना के चेहरे का रंग सुर्ख़ से स्याह हो// वाह जबरदस्त पञ्च लाइन ,सशक्त कथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया माला जी
वाह, बहुत बढ़िया रचना विषय पर| रंग तो समय के साथ बदलते ही हैं, लेकिन इस तरह नहीं बदलने चाहिए| बधाई इस रचना के लिए
आपकी इस रचना के विषय का चुनाव तो गजब का है आदरणीया माला झा जी, कहीं न कहीं हमारे समाज में यह सच भी छिपा हुआ है| साड़ियाँ बेचने वाले को साड़ियों को समझने के लिए आँखों की आवश्यकता नहीं होती| आदरणीय गुरूजी और वरिष्ठजनों की बातों को संज्ञान में लायें तो यह रचना गजब ढा सकती है, मुझे पूरा विश्वास है| इस रचना के सृजन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें|
रंग
किसी गहरी नदी की सी गंभीरता लिए ही देखा था उन्हें बचपन से। मुँह अँधेरे उठकर घर के कामों में जुटी, हर आवाज़ पर दौड़ती, सबकी जरुरत का ख्याल करती, सफ़ेद लिबास में लिपटी शांता बुआ। चार भाई और भाभियाँ और उनके हम सब बच्चे। सबकी आदतों से परिचित बुआ की आवाज़ तो कभी-कभी ही सुनाई देती। इतनी शांत बुआ झगड़े की वज़ह भी हो सकती हैं, विश्वास ही ना हुआ था। पर बड़े चाचा की आवाजों से पूरा दालान गूंज रहा था:
“तू जानता भी है छोटे कि तू क्या बोल रहा है? ऐसा अनर्थ हमारे कुल में ना कभी हुआ ना होगा! दद्दा आप समझाइए इसे।”
“बहन हम सबकी नौकरानी बन कर रह गई, उसमे अनर्थ नहीं है? दुबारा घर बसने में अनर्थ हो जायेगा!” ये छोटे चाचा का स्वर था.
“आप एक बार सोचिए तो सही दद्दा,” अब तक चुप खड़े मझले चाचा भी छोटे चाचा के समर्थन में उतर आए थे।
पिताजी ने थोड़ा समय माँगा था सोचने के लिए। इस बीच घर की स्त्रियों ने भी मौन आहुति डाल दी थी - छोटे चाचा के यज्ञ में।
घर में उत्सव मन उठे। सफ़ेद लिबास उतार, लाल जोड़े में लिपटी शांता बुआ की आँखों में जीवन की ज्योति जल उठी थी।
तब पहली बार जाना नारी जीवन में लाल और सफ़ेद रंग का फ़र्क।
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