वह अपनी धुंधली आँखों से बीत रहे वर्ष की पीठ पर बने रंग बिरंगे चित्रों को बहुत गौर से निहार रही थी, वह अभी उनमें छुपे चेहरों को पहचानने का प्रयास ही कर रही थी कि सहसा वे चित्र चलने फिरने और बोलने लग पड़ेI
"माँ जी! कितनी दफा कहा है कि इन बर्तनों को हाथ मत लगाया करोI"
नये टी सेट का कप उससे क्या टूटा उसके घर में कलेश ने पाँव पसार लिए थेI
अगले दृश्य में नए साल की इस झांकी को होली के रंगों ने ढक लियाI
"बेटा ये बहू की पहली होली है, तो इस बार त्यौहार धूमधाम से..."
"नहीं माँ! इस बार होली मनाने मैं अपने ससुराल जा रहा हूँI" बेटे ने माँ की बात काट दी थीI
अब गुज़रे साल की पीठ पर उभरा "गर्मियाँ" और नेपथ्य से छोटी बहू का आदेशात्मक स्वर:
"तुम कुछ रोज़ बाहर बरामदे में सो जाना माँ! मेरे पिता जी को बिना कूलर नींद नहीं आतीI"
पर्दे पर दृश्य बदलते ही वह अपने बेटे के सामने खड़ी थीI
"बेटा! पण्डित जी तुम्हारे बाबू जी के श्राद्ध का पूछ रहे थेI" उसने डरते डरते बेटे से कहा थाI
"ये श्राद्ध व्राद्ध दकिआनूसी बातें हैं माँ, छोड़ो इनकोI सौ पचास दान कर देना मन्दिर में जाकरI" बेटा बिना उसकी तरफ देखे अपने कमरे में जा घुसा थाI
अगले चलचित्र में हर तरफ रौशनी ही रौशनी थीI वह उस रौशनी को चुरा कर अपने घर आंगन में सजा लेना चाहती थी कि छोटा बेटा सामने आ खड़ा हुआ था:
"अम्मा दिवाली पर हमारे कुछ ख़ास मेहमान आ रहे हैं, भगवान के लिए तुम अपने कमरे में ही रहनाI"
अब चित्रपट पर अँधेरा छा गयाI उसने चश्मा उतारने के लिए हाथ बढाया ही था कि चित्रपट बर्फ से ढक गयाI
"हो हो हो - हा हा हा!!" उस सर्द शाम को लाल पोशाक में सफ़ेद दाढ़ी मूछ लगाये नन्हा पोता अचानक उसके कमरे में प्रकट हुआ थाI
"अरे कौन हो तुम?"
"मैं सांता क्लौज़ हूँ दादी!" भारी आवाज़ में वह बोला थाI
"अरे तो संता इस बुढ़िया के पास क्या करने आया है?" प्यार से उसे गोदी में बिठाते हुए उसने पूछा थाI
"अपनी दादी माँ को गिफ्ट देने आया है!" जेब से टॉफ़ी निकाल कर दादी के मुँह में डालते हुए पोता खिलखिलाकर हँसा थाI
यह अन्तिम दृश्य उसके चेहरे पर मुस्कुराहट बन कर छा गया, दीवार पर टँगी पति की तस्वीर को निहारते हुए उसके मुँह से निकला:
"ये पिछला साल बहुत अच्छा रहा मुन्नू के बापूI"
.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
कथानक तो नया नहीं..असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है किन्तु जिस कसावट व् रोचकता के साथ लघु कथा प्रस्तुत की गई है उसने इस कथानक में जान फूँक दी आँखें नम हो गई पढ़ते पढ़ते बहुत मार्मिक .दिल से बहुत बहुत बधाई आद० योगराज जी
आपकी लघु कथा अच्छी लघु कथा का उदाहरण होती है। पैनी दृष्टि, भाव, संदेश, यथार्थ, संवेदना ... आप इन सभी को जिस कसावट से बुनते हैं, वह हमारे लिए मिसाल है। हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई योगराज जी।
एक छोटा सा यादगार पल वजूद को सार्थकता देता हुआ ..वाह ,,हार्दिक बधाई आदरणीय रचना के लिए और धन्यवाद ,लघुकथा लेखन सीखने के क्रम में एक और पाठ जोड़ने के लिए.....सादर ...
आदरणीय योगराज सर, इस लघुकथा ने नम कर दिया. इतना विशाल हृदय एक माँ का ही हो सकता है. वैसे भी असल से ज्यादा प्यारा सूद होता ही है. इस शानदार लघुकथा को साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
//ये पिछला साल बहुत अच्छा रहा मुन्नू के बापू// अंतिम पंक्ति कितना कुछ कह जाती है, सादर आभार आदरणीय सर इस रचना को हम सभी से साझा करने के लिए|
आहा | सर गजब की कथा हुई है यह भी | आपकी हर कथा एक से बढ़कर एक होती हैं | घर के बुज़ुर्ग अपने को बेसहारा समझने लगते हैं , अपने ही बच्चों से कई बार तिरस्कृत होते हैं ऐसे समय पर पोते पोतियों का प्यार या उनका आगमन ही उनकी जान में जान डाल देता है | उनकी खुशियों को चार चाँद लग जाते हैं | हार्दिक बधाई आदरणीय सर |
आहा , क्या शानदार कथा हुयी है . हकीकत से लबरेज . पूरे जीवन का आईना .और शिल्प का तो कहना ही क्या . क्या कसावट , क्या बुनावट . आ० अनुज आपसे ऐसी ही कथा की सदैव अपेक्षा रहती है . मेरी कोटि कोटि बधाई .
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,अभी आपकी पिछली कघुकथा का नशा भी नहीं उतरा था कि एक और शानदार लघुकथा सामने आ गई नशा दोबाला हो गया ।
ज़हनी कश्मकश को आपने एक तस्वीट की तरह पेश किया है,वाह बहुत ख़ूब, इस बाकमाल लघुकथा के लिये दिल से ढेरों दाद के साथ ढेरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
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