एक साल हो गया था माँ से मिले हुए। मिलने का बहुत मन हो रहा था। इसलिए वह होली के अवसर पर गाँव जाना चाहता था। किन्तु छुट्टी का आवेदन अस्वीकार कर दिया गया। घर पहुँचते ही वह सीधे बिस्तर पर गिर पड़ा और सामने दीवार पर लगी स्वर्गीय पिता की तस्वीर को एकटक देखते-देखते कब आँख लग गई, कब वह सपनों में गोते खाने लगा, पता ही न चला।
"बेटा बहुत परेशान लग रहे हो!"
"हाँ पापा, इस कोरोना के कारण माँ से मिले एक साल हो गया, छुट्टी मिल नहीं रही है। क्या नौकरी का मतलब यही होता है कि आदमी घर-परिवार से ही कट जाए?"
पिता ने बेटे का सिर सहलाते हुए समझाया,
"तुम जो कह रहे हो बिल्कुल ठीक है बेटा, मगर समाज के प्रति भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है।"
"और माँ के प्रति ?"
"माँ के प्रति भी तुम्हारा कर्तव्य है बेटा।"
"तो आप ये चाहते हैं कि मैं अपना ये कर्तव्य भूल जाऊँ?"
"बिल्कुल भी नहीं बेटा! लेकिन एक बात हमेशा याद रखना कि तुम कोई आम सरकारी नौकर नहीं हो। तुम एक डॉक्टर हो... डॉक्टर !"
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आ. भाई गणेष जी बागी, सादर अभिवादन ।अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई।
हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी बागी जी। बहुत सुंदर संदेश देती बेहतरीन लघुकथा।
नमस्कार, Er.Ganesh Jee Baghi, 'कर्तव्य' नामक आपकी लघुकथा सीमित दायरे कथ्य के सहज प्रफुस्टन के लिए उल्लेखनीय कही जाएगी! यद्यपि विषय , श्रेय (कर्तव्य ) और प्रेय (मा ) का द्वंद्व पुरातन ही कहा जाएगा ,,!
मोहतरम समर साहब, नमस्कार, आपकी उत्साहवर्द्धन करती प्रतिक्रिया हेतु आभार ।
जनाब गणेश जी बाग़ी साहिब आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने, बधाई स्वीकार करें ।
प्रथम प्रोत्साहन हेतु हृदय से आभार मोहतरम अमीरुद्दीन साहब, यदि लघुकथा के अंत को और स्पष्ट तथा विस्तारित किया जाएगा तो रचना लघुकथा न होकर कहानी हो जाएगी, शेष पाठक मित्रों के लिए ।
जनाब गणेश जी 'बाग़ी' जी आदाब, अच्छी भावपूर्ण लघुकथा की रचना के लिए बधाई स्वीकार करें। एक पाठक के रूप में इतना ही कहना चाहता हूँ कि लघुकथा के अंत को तनिक विस्तार देने व स्पष्ट किये जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। सादर।
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