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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"'s Blog (167)

तुमको गीतों में ढाला तो ये कागा भी कुहक उठा- पंकज द्वारा गीत

तेरा नाम लिखा जो प्रियतम,पन्ना पन्ना महक उठा।

तुझको गीतों में ढाला तो, ये कागा भी कुहक उठा।।



मेरे शब्दों में खालीपन, एक उदासी छाई थी।

मुर्दों से बिछते कागज़ पर, मरघट सी तन्हाई थी।।



तेरा रूप उकेरा जब तो, कोहेनूर सा दमक उठा।

तुझको गीतों में ढाला तो, ये कागा भी कुहक उठा।।1।।



मैं तो ठहरा एक बावरा, इस उपवन उस उपवन भटका।

ढूँढा तुझको यहाँ वहाँ, पर माया वाले जाल में अटका।।



तेरा रूप सुमन जो महका, मन का पंछी चहक उठा।

तुझको गीतों में ढाला… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on December 2, 2016 at 4:30pm — 17 Comments

मग़र मड़ई छवानी है, कमाना भी ज़रूरी है------पंकज द्वारा ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222

चलूँ स्कूल लेकिन घर में दाना भी ज़रूरी है

पढूँगा तो मग़र ये घर बचाना भी ज़रूरी है



ग़रीबी श्राप है इस श्राप से है मुक्ति शिक्षा में

मग़र मड़ई छवानी है, कमाना भी ज़रूरी है



मुझे मालूम है कूड़े में मिलते रोग के कीड़े

ये कचरे ही मेरी रोजी, जुटाना भी ज़रूरी है



उसे भी छोड़िये, पिल्लू अभी भैंसें ले जाएगा

बहुत महँगा हुआ दर्रा, चराना भी ज़रूरी है



हमारे गाँव की चट्टी पे, पे टी एम् नहीं होता

तो मुर्री में बचत अपनी छिपाना भी… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 29, 2016 at 11:49pm — 12 Comments

रिश्ते कबाड़ मन में पड़े सड़ रहे थे सब- पंकज द्वारा ग़ज़ल

मस्तिष्क की गली से तू गुज़रा अभी अभी
सोया था दिल जो मेरा वो धड़का अभी अभी

रिश्ते कबाड़, मन में पड़े सड़ रहे थे सब
दीपोत्सव से पहले बहाया अभी अभी

उस्से मिला तो जाना भला कोहेनूर क्या
भटका पथिक मैं राह पे लौटा अभी अभी

सब वक्त का तकाज़ा है सत्ता औ सुल्तनत
सबको सिखा गया है रुपैया अभी अभी

अब नींद आ रही है चलो फिर मिलेंगे कल
सन्देश सबको मैंने ये भेजा अभी अभी

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 23, 2016 at 9:43pm — 7 Comments

हसरत को दफनाया जाए-पंकज द्वारा ग़ज़ल

इक ताबूत मंगाया जाए
हसरत को दफनाया जाए

पतझर से पहले पतझर को
उपवन में बुलवाया जाए

ऐसा कर अब चल रे पंकज
मन का ताप बढ़ाया जाए

परिवर्तन का दौर चला है
रिश्तों को ठुकराया जाए

मोती रोको, गर्द जमेगी
पत्तों को समझाया जाए

बहुत हुआ अब शोर शराबा
धड़कन को समझाया जाए

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 22, 2016 at 1:15pm — 10 Comments

रेट का टैग लगा रिश्तों का बाज़ार मिला- पंकज द्वारा ग़ज़ल

2122 1122 2122 112



ढूँढने प्रीत चला स्वार्थ का उपहार मिला

रेट का टैग लगा रिश्तों का बाज़ार मिला



आदमीयत भी दिखावे की कोई चीज़ हुई

कैमरा ऑन था, दुखिया को बहुत प्यार मिला



न्याय के घर में भी पैसे की खनक हावी हुई

नाचता नोट की गड्डी पे ख़बरदार/जिरहदार मिला



ये अलग बात है तुम ज़िद पे अड़े हो तो मिलो

पर मुझे भूल नहीं पाया जो इक बार मिला



देख दर्पण में हक़ीक़त को चुराता है नज़र

लोभ की कीच में पंकज भी तो बीमार मिला



मौलिक… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 22, 2016 at 7:00am — 6 Comments

आ भी जाओ परी- पंकज द्वारा गीत

तेरे दीदार को ये निगाहें मेरी

कब से व्याकुल हैं विह्वल ये धड़कन मेरी

आ भी जाओ परी

आ भी जाओ परी।



आ भी जाओ परी

आ भी जाओ परी।।



कितने अरमान मन में सँजोये हूँ मैं

नींद तेरे लिए ही तो खोए हूँ मैं



इस अँधेरे नगर में बिछे चाँदनी

घोल दे ज़िन्दगी में मधुर रागिनी



राग पायल की छम छम सुना सांवरी

आ भी जाओ परी

आ भी जाओ परी।



आ भी जाओ परी

आ भी जाओ परी।।1।।



तेरे काजल सजे दोनों चंचल नयन

फूल सा खूबरू… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 21, 2016 at 3:30pm — 7 Comments

और फिर से इक दफ़ा-पंकज मिश्र

और फिर से इक दफ़ा इस, दिल ने धोख़ा दे दिया
सो रहा था, बेवफ़ा का, नाम सुनकर जग गया

और फिर से इश्क़ ने, तूफ़ान की सौगात दी
और हमने यूँ किया की, आज जी भर रो लिया

और फिर से इक दफ़ा हम प्रश्न लेकर हैं खड़े
दोस्ती कैसे निभेगी बोल मेरे साथिया

और फ़िर से इक दफ़ा मिलने वो आये हैं मग़र
हम कफ़न में और वो पर्दानशीं उफ़ ये हया

और फिर से इक दफ़ा पत्थर से गङ्गा बह चली
वत्स कुल में इक भगीरथ फिर हुआ पैदा नया

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 19, 2016 at 4:22pm — 8 Comments

क्या गरज़ है कि अपाहिज के लिए तुम रूक्को----ग़ज़ल

2122 1122 1122 22

क्या गरज़ है कि अपाहिज के लिए तुम भी रुको
अपनी रफ़्तार की तेजी को न यूँ दफ़नाओ

ग़र तुम्हें साथ में चलने में परेशानी है
राह में छोड़ के आगे भी निकल सकते हो

अपने अंदाज़ में चलने का चलन ही है यहाँ
न मना ही है किया और न टोका तुमको

तुम चलो मैं भी मिलूँगा जी वहीँ मंज़िल पर
जाके खरगोश व कछुए की कथा फिर से पढ़ो

राह में रात भी होगी तो किधर जाओगे
मेरी ग़ज़लों की ये सौगात उजाले ले लो


मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 13, 2016 at 7:00am — 3 Comments

इश्क़ रूठा है मनाना है मनाऊँ कैसे----ग़ज़ल

2122 2122 2122 22
इश्क़ रूठा है मनाना है मनाऊँ कैसे
नूर से घर को सजाना है सजाऊँ कैसे

शायरी बन के लहू दौड़ती है नस नस में
शेर पिंजर में बिठाना है बिठाऊँ कैसे

साँस लेने की प्रथा त्यागूँ भी कैसे बोलो
राम को राह से जाना है तो जाऊँ कैसे

जाने कैसा है नशा अब भी है हावी मुझ पर
रूह को होंश में लाना है मैं लाऊँ कैसे

काम मद से है भरा घर मोह के पर्दे हैं
उनको इस घर में बसाना है बसाऊँ कैसे

मौलिक अप्रकाशित .

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 31, 2016 at 9:02am — 6 Comments

है काँटों भरी प्रीत की ये डगर मन----ग़ज़ल

122 122 122 122



मना तो किया था न जाना उधर मन

चला इश्क़ की राह पर तू मगर मन



सुहाना सफ़र तो महज़ कल्पना है

है काँटों भरी प्रीत की ये डगर मन



निगाहों का तटबंध तो टूटना था

ये बादल तो बरसेंगे अब उम्र भर मन



मिलेंगे वफ़ा हुस्न इक साथ दोनों

ये ख्वाहिश भरम है कभी भी न कर मन



सितम खुद पे कर के किसे कोसता है

पिया तूने खुद चाहतों का ज़हर मन



सिखाया तो था त्याग में बस ख़ुशी है

हुआ ही नहीं बात का कुछ असर… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 24, 2016 at 12:00am — 10 Comments

सकल दुख तरल रूप में आज वर्षित---ग़ज़ल, पंकज मिश्र

122 122 122 122

घनीभूत पीड़ा मनस व्योम क्षोभित

सकल दुख तरल रूप में आज वर्षित



अभीप्सा सुमन पर है मूर्च्छन प्रभावी

है निर्जीव सा तन हृदय ताल बाधित



कहाँ चाँदनी से क्षितिज था चमकना

कहाँ दामिनी ने किया पूर्ण भस्मित



पुनः लेखनी आज मानी न आज्ञा

गजल में किया है तुम्हें फिर सुशोभित



सजल चक्षुओं में कहाँ नींद होगी

निशा एक फिर से हुई तुझको अर्पित



न उद्देश्य किंचित भी चर्चा का लेकिन

तेरे नाम का मन्त्र बांचे… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 8, 2016 at 10:30am — 14 Comments

भाई साहब सबकी अर्थी, बस कन्धों पर जानी है-----इस्लाह के लिए ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2

माटी माटी जुटा रही पर जीवन बहता पानी है

स्वार्थ लिप्त हर मनुज हुआ कलयुग की यही कहानी है



मन की आग बुझे बारिश से, सम्भव भला कहाँ होगा

तुम दलदल की तली ढूंढते ये कैसी नादानी है



भौतिकता तो महाकूप है मत उतरो गहराई में

दर्पण कीचड़ युक्त रहा तो मुक्ति नहीं मिल पानी है



बीत गया सो बीत गया क्षण, बीता अपना कहाँ रहा

हर पल दान लिए जाता है समय शुद्ध यजमानी है



स्वर्ण महल अवशेष न दिखता हस्तिनापुर बस कथा रहा।

बाबर वंश… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 29, 2016 at 5:41pm — 21 Comments

ग़ज़ल-इस्लाह के लिए

2122 1212 22(112)



आदरणीय बाऊजी द्वारा इस ग़ज़ल का मत्ला सुझाया गया है, उनको सादर नमन

.................................



सोचिये तो जनाब क्या होगी

ख़ूब,दिल से किताब क्या होगी"



इश्क़ से जिसका वास्ता ही नहीं

नींद उसकी ख़राब क्या होगी



क्रोध के घूँट का मज़ा है अलग

इससे बेहतर शराब क्या होगी



खुद खुली इक किताब है जो नफ़र

ज़िल्द उस पर ज़नाब क्या होगी



चल रही ज़िस्म की नुमाइश तो

रूह फिर आफ़ताब क्या होगी



मौलिक… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 20, 2016 at 7:30am — 6 Comments

सृष्टि का सबसे मधुर फिर गीत हम गाते सनम-----ग़ज़ल, पंकज मिश्र

2122 2122 2122 212



काश तेरे नैन मेरी रूह पढ़ पाते सनम।

दर ब दर भटकाव से ठहराव पा जाते सनम।।



इक दफ़ा बस इक दफ़ा तुम मेरे मन में झाँकते।

देखकर मूरत स्वयं की मन्द मुस्काते सनम।।



धड़कनों के साथ अपनी धड़कनें गर जोड़ते।

इश्क़ का अमृत झमाझम तुमपे बरसाते सनम।।



हाथ मेरे थाम कर चुपचाप चलते दो कदम।

प्रीत का जिंदा नगर हम तुमको दिखलाते सनम।।



खुद से अब तक मिल न पाए हो तो बतलाऊँ तुम्हें।

लोग कहते शेर मेरे तुझसे मिलवाते… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 16, 2016 at 9:50pm — 13 Comments

भावना के ज्वार से खुद को निकाल ले----ग़ज़ल (पंकज मिश्र)

2212 1212 2212 12
मन की फिज़ा बिगाड़ के, बरसात रोकते?
बकवास से ख़याल तो, अब मत ही पालिये

जब की सुनामी हो उठी, धड़कन के शह्र में
वाज़िब है दिल के घाट से, कुछ फासला रहे

सुनिये तो साहिबान ये, सर्कस अजीब है
सपनों में विष मिलाते हैं अपने ही काट के

मरहम लिए हक़ीम तो मिलते तमाम हैं
ये और बात उसमें नमक मिर्च डाल के

क्या रोग पाल बैठा है, पंकज इलाज़ कर
तू भावना के ज्वार से खुद को निकाल ले

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 16, 2016 at 9:54am — 6 Comments

सोच करनी ही थी मंदार कभी-ग़ज़ल , पंकज

2122 1122 112

तू मेरा कब था अलमदार कभी
आँख कब तेरी थी नमदार कभी

शुक्रिया ज़ख्म नवाज़ी के लिए
और क्या माँगे कलमकार कभी

जिसे ख़ाहिश नशा ताउम्र रहे
उसे भाये न चिलमदार कभी

सोच कर एक शज़र ग़म में हुआ
जिस्म खुद का भी था दमदार कभी

मैं समंदर के ही मंथन को चला
सोच करनी ही थी मंदार कभी

मौलिक-अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2016 at 12:00am — 14 Comments

ये दुनिया मेरी सल्तनत राजगी है-------ग़ज़ल

122 122 122 122
तेरे हुश्न में इक गज़ब ताज़गी है
भरूँ साँस में आस मन में जगी है।

नये काफियों की नई इक बह्र तुम
ग़ज़ल खूबरू जिसमें पाकीज़गी है।

तुम्हें चाँदनी से सजाया गया तो
अमावस को ईश्वर से नाराज़गी है

सिवा तेरे कोई भजन ही न भाये
यहाँ मन पे बस तेरी ही ख्वाजगी है

मेरे हाथ गर थाम कर तुम चलो तो
ये दुनिया मेरी सल्तनत राजगी है

मौलिक-अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 9, 2016 at 7:33pm — 7 Comments

बाज आता नहीं सिखाने से-ग़ज़ल

2122 1212 22



जाके कह दीजिए ज़माने से

वक़्त छीने कमाने खाने से



यूँ समस्याएं खत्म क्या होंगी

सिर्फ़ इल्ज़ाम भर लगाने से



काम सरकार ग़र नहीं करती

किसने रोका है कर दिखाने से



बैठ टेली विज़न के आगे यूँ

दिन बहुर जाएगा न गाने से



खुद को बदले बिना न रुक सकता

पाप बस शोर यूँ मचाने से



मुद्दे ऐसे तो हल नहीं होंगे

राग-ढपली अलग बजाने से



देश खुद ही प्रगति के पथ होगा

भार हर एक के उठाने से



मानता ही… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 28, 2016 at 11:16am — 13 Comments

सच से कम कुछ कहा नहीं जाता- ग़ज़ल

2122 1212 22



गुमशुदा यूँ रहा नहीं जाता

घुट के हमसे मरा नहीं जाता



रौशनी की बहुत ज़रूरत है

इसलिए ही बुझा नहीं जाता



आँख मन से जुड़ी है सीधे ही

सोचने से बचा नहीं जाता



लेखनी ताक़ पर मैं रख देता

दिल बिना तो जिया नहीं जाता



हाँ; जी पढ़ता नहीं कोई पुस्तक

कर्ज़ लेकर लिखा नहीं जाता



है तो दुनिया बड़ा सरोवर पर

नीर के बिन खिला नहीं जाता



दुश्मनी पालिये भले साहिब

सच से कम कुछ कहा नहीं जाता



राह… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 23, 2016 at 9:00pm — 7 Comments

बिलखते हैं बच्चे , सिसकती हैं माएँ मनाएं भला जश्न कैसे बता दो------------ग़ज़ल

122 122 122 122 122 122 122 122

अभी जाने कितने घरों में न चूल्हा

न जाने ही कितनों के घर, ये तो जानो।

बहुत कीमती फोन हाथों में लेकर

वो नेता बताता दिखा मीडिया को।।1।।



सफेदी थी झक्कास गाड़ी गज़ब की

सफ़ारी थी शायद औ मॉडल नया था।

गरीबी पे व्याख्यान देकरके जिसमें

मसीहा गरीबों का चढ़कर गया, वो।।2।।



परिस्थिति पे घड़ियाली आँसू बहाकर

तसल्ली बहुत दे गया था जो नेता।

मदद को बुलाया था आवास पर ही

मिटाये कहाँ दाग मन पर दिया ,… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 17, 2016 at 3:30pm — 4 Comments

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