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रिश्ते कबाड़ मन में पड़े सड़ रहे थे सब- पंकज द्वारा ग़ज़ल

मस्तिष्क की गली से तू गुज़रा अभी अभी
सोया था दिल जो मेरा वो धड़का अभी अभी

रिश्ते कबाड़, मन में पड़े सड़ रहे थे सब
दीपोत्सव से पहले बहाया अभी अभी

उस्से मिला तो जाना भला कोहेनूर क्या
भटका पथिक मैं राह पे लौटा अभी अभी

सब वक्त का तकाज़ा है सत्ता औ सुल्तनत
सबको सिखा गया है रुपैया अभी अभी

अब नींद आ रही है चलो फिर मिलेंगे कल
सन्देश सबको मैंने ये भेजा अभी अभी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 29, 2016 at 11:42pm
आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत आभार।। दीपोत्सव को मैंने जब भी गुनगुनाया तो मात्रा 2212 ही आई, इसलिए मुझे उचित लगा।।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 29, 2016 at 11:40pm
आदरणीय तस्दीक सर सादर आभार, ग़ज़ल को आशीष मिला, अच्छा लगा

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 28, 2016 at 7:15pm

आदरनीय पंकज भाई , अच्छी गज़ल कही है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

दीपोत्सव  .. वाला मिसरा मुझे लय मे नही लगता  -- दीपोत्सव को  222 लेना उचित होगा ऐसा मेरा खयाल है ।

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on November 27, 2016 at 9:45pm

जनाब पंकज  कुमार साहिब  ,अच्छी ग़ज़ल हुई है , दाद के साथ  मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --

Comment by Samar kabeer on November 26, 2016 at 8:38pm
जी अच्छा,मुझे मालूम नहीं था ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 26, 2016 at 8:32pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम।
इसके अरकान हैं-
22 1212 1122 1212

सुल्तनत-इसलिए लिख दिया क्योंकि, इतिहास के विद्वान हैं-इरफान_हबीब जिन्होनें अपनी पुस्तक का नाम ही "दिल्ली सुल्तनत" लिखा है।
Comment by Samar kabeer on November 26, 2016 at 5:10pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
चौथे शैर में 'सुल्तनत' को "सल्तनत" कर लीजिये ।
आपने ग़ज़ल के साथ अरकान नहीं लिखे ?

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