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2122 1212 22(112)

आदरणीय बाऊजी द्वारा इस ग़ज़ल का मत्ला सुझाया गया है, उनको सादर नमन
.................................

सोचिये तो जनाब क्या होगी
ख़ूब,दिल से किताब क्या होगी"

इश्क़ से जिसका वास्ता ही नहीं
नींद उसकी ख़राब क्या होगी

क्रोध के घूँट का मज़ा है अलग
इससे बेहतर शराब क्या होगी

खुद खुली इक किताब है जो नफ़र
ज़िल्द उस पर ज़नाब क्या होगी

चल रही ज़िस्म की नुमाइश तो
रूह फिर आफ़ताब क्या होगी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 21, 2016 at 5:22pm
आदरणीय शिज़्ज़ु सर सादर आभार, संशोधन कर दिया है, सुधरा रूप प्रस्तुत है

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2016 at 2:33pm

आदरणीय पंकज जी कोशिश अच्छी है मास्साब शायद मास्टर साहब का लघुरूप है, लेकिन यह प्रयोग कुछ खटक रहा है. आ. समर कबीर साहब के सुझावों पर कोशिश करें तो फायदा ज़रूर करें

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 20, 2016 at 11:08pm
आदरणीय रवि भैया को सादर प्रणाम।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 20, 2016 at 11:07pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम। आपका आशीर्वाद मिला,मैं धन्य हुआ। बतायी गयी गलतियों को सुधारता हूँ।
Comment by Ravi Shukla on September 20, 2016 at 8:54pm
आदरणीय पंकज जी अच्छे अशआर हुए है बधाई हाजिर है
आदरणीय समर साहब ने मतला दे दिया है।बधाई
Comment by Samar kabeer on September 20, 2016 at 6:13pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा ख़ुश रहो, आपकी ग़ज़ल का मतला कहना बहुत दुश्वार अमल रहा,मतला देखिये:-
"सोचिये तो जनाब क्या होगी
ख़ूब,दिल से किताब क्या होगी"
पहले शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ का दोष है,ऊला मिसरा यूँ कर लें :-
"इश्क़ से जिसका वास्ता ही नहीं"
तीसरे शैर में दो ऐब हैं,तक़ाबुल-ए-रदीफ़,और ऐब-ए-तनाफ़ुर,ऊला मिसरा यूँ करें:-
"लत तिरंगे की है लगी जिसको"
इसी शैर के सानी मिसरे में "मास्साब"का अर्थ में नहीं समझ पाया ?
बाक़ी अशआर के लिये बधाई स्वीकार करें ।

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