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इश्क़ रूठा है मनाना है मनाऊँ कैसे----ग़ज़ल

2122 2122 2122 22
इश्क़ रूठा है मनाना है मनाऊँ कैसे
नूर से घर को सजाना है सजाऊँ कैसे

शायरी बन के लहू दौड़ती है नस नस में
शेर पिंजर में बिठाना है बिठाऊँ कैसे

साँस लेने की प्रथा त्यागूँ भी कैसे बोलो
राम को राह से जाना है तो जाऊँ कैसे

जाने कैसा है नशा अब भी है हावी मुझ पर
रूह को होंश में लाना है मैं लाऊँ कैसे

काम मद से है भरा घर मोह के पर्दे हैं
उनको इस घर में बसाना है बसाऊँ कैसे

मौलिक अप्रकाशित .

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 19, 2016 at 4:21pm
आदरणीय राजेश दीदी सादर शुक्रिया

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 16, 2016 at 12:33pm

अच्छी ग़ज़ल है आद० पंकज जी बधाई कुबूलें 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 2, 2016 at 9:30pm
आदरणीय बाउजी सादर प्रणाम, बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 2, 2016 at 9:28pm
आदरणीय रामबली गुप्ता सर सादर आभार
Comment by Samar kabeer on November 1, 2016 at 5:42pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
Comment by रामबली गुप्ता on November 1, 2016 at 7:40am
अच्छी गजल हुई है भाई पंकज कुमार जी। बधाई स्वीकार करें।

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