सदियों से शोषित-दमित समाज में -
तुम्हारे पास स्पष्ट समझ है
एकदम साफ रास्ता है -
लूट के घिनौने यंत्र को बरकरार रखने में !
लूट के लिए खून बहा देने में !
लूट के खिलाफ उठी हर आवाज को कुचल डालने में !
हैरत तो यह है कि,
कितनी आसानी से सफल हो जाते हो तुम,
अपने नापाक इरादों में !
सच ! तुमको कितना मजा आता है -
अस्मत लुटी औरतों की दर्दनांक मौत में !
लोगों को आपस में ही लड़ा डालने में !
उनके बीच में ही संदेह का बीज पनपा…
Added by Rohit Sharma on April 19, 2012 at 5:30pm — 4 Comments
हम तो बादल हैं ...........
बरसे कभी नहीं बरसे.....
सफ़र किया था शुरू बेपनाह दरिया से,
झूमे खेले लहर की गोदी में,
जिन के सीने में मोती और तन पे चाँदी थी,
तभी पड़ी जो वहां तेज़ किरन सूरज…
ContinueAdded by Sarita Sinha on April 19, 2012 at 5:00pm — 15 Comments
मुक्तिका: संजीव 'सलिल'
*
लफ्ज़ लब से फूल की पँखुरी सदृश झरते रहे.
खलिश हरकर ज़िंदगी को बेहतर करते रहे..
चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..
आँख से आँखें मिलाकर, आँख में कब आ बसे?
मूँद लीं आँखें सनम सपने हसीं भरते रहे..
ज़िंदगी जिससे मिली करते उसीकी बंदगी.
है हकीकत उसी पर हर श्वास हम मरते रहे..
कामयाबी जब मिली…
Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2012 at 7:30am — 5 Comments
इश्क की कोमल भावनाओ से
अछूती है मेरी कविताये
Added by दिव्या on April 18, 2012 at 2:30pm — 19 Comments
पिता जी,
संघर्ष अभी जीवित है
वो मरा नहीं
अब भी आपके सपने
उसकी आँखों में ही है
वो आँसुयों में बहे नहीं
यद्यपि
वह टूटा नजर आ रहा
परंतु , पिता जी
अभी संघर्ष जीवित है
वो मरा नहीं
अभी भी उसमे अरमान है
अनंत आकाश में उड़ने की ख्वाहिश है
जो आप ने उसे दिखाये थे
यद्यपि
वह थक कर रुक गया…
ContinueAdded by arunendra mishra on April 18, 2012 at 12:30am — 4 Comments
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ आभार ?
क्या लिखूं ?
जिसमें समा जाए -
-नहाई देह की खुशबू
सुबह मेरी जो महकाती रही है !
-और होंठो की मधुर मुस्कान
जो बिखरी मेरे होंठो पे ऐसे खिलखिलाकर ,
भर गई मेरे ह्रदय में
उष्णता अनमोल !
मरुथल में खिले जैसे
कुछ हँसी के फूल !
योग्य संभवतः नही पर
धन्य हूँ पाकर
दिए तुमने हैं जो उपहार !
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ…
ContinueAdded by Arun Sri on April 17, 2012 at 7:30pm — 11 Comments
मनु और राकेश इंजीनियरिंग कोलेज में साथ - साथ पढ़ते थे. न जाने कब एक दूसरे को चाहने लगे पता ही नहीं चला. प्यार बिजली की तरह होता है जो दिखता तो नहीं महसूस होता है. प्यार की परिणिति विवाह के पवित्र सूत्र बंधन में हुई. यद्दपि कि प्रारंभ में परिवार, रिश्तेदारों और समाज के काफी विरोध का सामना इन दोनों को करना पड़ा , और विरोध स्वाभाविक भी था. खुद के परिवार में ऐसा हो जाये तो लोग खामोश रहते हैं अगर अन्य जगह ऐसा प्रकरण सामने आये तो फिर क्या कहने. सात पीढ़ियों तक के गुणगान किये जाते हैं. प्रेम विवाह…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 17, 2012 at 6:00pm — 18 Comments
Added by Arun Sri on April 17, 2012 at 11:59am — 23 Comments
मिल बैठ कर परिजनों ने बात नही की थी
पर नज़रें मिलीं थी आपसे
शहनाईयां नही बजी थी
पर तार दिलों के झनझनाए थे
दिए-बत्तिय़ों की चकाचौंध नही हुई थी
पर जज़्बातों की शम्मां रौशन हुई थी
महफिलें नहीं सजीं थी
पर दो जनों की मुलाकात…
ContinueAdded by minu jha on April 17, 2012 at 11:38am — 5 Comments
तू क्या-क्या ना सहती आई है l
कभी गंगा कहते हैं तुझको
कभी होती है देवी से उपमा
मन बिशाल ममता की मूरत
और सहनशक्ति में धरती माँ
रूप अनोखे हैं अनगिन तेरे
युग की गाथा में लक्ष्मी बाई है l
तू क्या-क्या ना सहती आई है l
तू ओस में डूबी कमल पंखुडी
रजनीगन्धा और हरसिंगार
सुरभित पुरवा के आँचल सी
घर में खिलती बन कर बहार
माटी सी घुल-घुल कर भी तू
ना कभी चैन से जीने पाई है…
ContinueAdded by Shanno Aggarwal on April 17, 2012 at 4:00am — 6 Comments
कविता -
कवि कहते हैं,
होना चाहिए प्रेम प्रतिज्ञा अपने महबूब के प्रति.
वर्णन हो, उसके अंग-प्रत्यंग का
नख से शिख तक.
कलात्मकता निहित हो,
उसके सुखमय आलिंगन में !
परन्तु,
कविता एक परम्परा भी है,
मेहनतकशों के प्रति प्रतिबद्धता का भी है.
जहां यह सब नहीं होता.
कविता कल्पना में नहीं
थाने के लाॅकअप में भी हो सकता है,
जहां थानेदार की बूट लिखती है कविता, हमारे कपाड़ पर.
जहां गर्दन तोड़कर लुढ़का दी जाती…
ContinueAdded by Rohit Sharma on April 16, 2012 at 8:03pm — 6 Comments
बन के काफ़िर जिसको पूजें कोई मूरत ही नहीं,
झेल ली है इतनी मुश्किल कुछ ये आफ़त ही नहीं;
*
साथ मेरे रह न पाया अजनबी ही तू रहा,
साफ़ कहना था तुम्हें मुझसे मुहब्बत ही नहीं;
*
सब के…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 16, 2012 at 6:00pm — 10 Comments
मां !
मैंने खाये हैं तुम्हारे तमाचे अपने गालों पर
जो तुम लगाया करती थी अक्सर
खाना खाने के लिए.
मां !
मैंने भोगे हैं अपने पीठ पर
पिताजी के कोड़ों का निशान,
जो वे लगाया करते थे बैलों के समान.
मां !
मैंने खाई हैं हथेलियों पर
अपने स्कूल मास्टर की छडि़यां
जो होम वर्क पूरा नहीं करने पर लगाया करते थे.
पर मां !
मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ
आखिर कयों लगी है मेरे हाथों में हथकडि़यां ?
जानती हो…
ContinueAdded by Rohit Sharma on April 16, 2012 at 1:36pm — 15 Comments
ये दुनिया की रस्मे
ये रीति- रिवाज
नहीं काम की चीज कुछ भी
आज....................
ख़त्म हो रहा है
मोहब्बत का रिश्ता…
Added by Sonam Saini on April 16, 2012 at 1:00pm — 9 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 16, 2012 at 10:08am — 6 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 15, 2012 at 8:00pm — 51 Comments
Added by MAHIMA SHREE on April 15, 2012 at 2:00pm — 38 Comments
Added by Abhinav Arun on April 15, 2012 at 9:30am — 29 Comments
अभिव्यक्ति - खामोश मिज़ाजी से गुज़ारा नहीं होता !
अपनों ने अगर पीठ पे मारा नहीं होता ,
दुनिया की कोई जंग वो हारा नहीं होता |
उनकी हनक से…
ContinueAdded by Abhinav Arun on April 15, 2012 at 9:30am — 32 Comments
हमें आजादी चाहिये --
चाहिये ,चाहिये , चाहिये ,
हमें आजादी चाहिये ,
तुम्हारे गम से , तुम्हारी खुशी से ,…
ContinueAdded by अरुण कान्त शुक्ला on April 15, 2012 at 12:30am — 7 Comments
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