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पीड़ा… एक कविता

पीड़ा का इक पल दर्पण

टूटा पल मे, पल मे बिखर गया |

इक मोती सा विश्वास मगर,

अन्तस मे कहीं ठहर गया |



उमडाया ये खालीपन,

गहराया ये सूनापन,

एकान्त अकेला कहीं गुजर गया |

मन ने वीणा के फ़िर तार कसे

उठो, कोई चुपके से ये कह गया |

विचलित होता अन्त:मन,

उभरा हर क्षण ये चिन्तन,

मन अनजाने ये किधर गया |

ह्र्द्य मे अपना सा एह्सास लिये

भींगी आंखो मे जो उभर गया |



करता पल पल ये क्रन्दन,

धडका बूंद बूंद ये जीवन,

छांव ममता…

Continue

Added by Rajesh srivastava on September 25, 2010 at 9:00am — 4 Comments

धर्म या राजनीती © (सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )



धर्म या राजनीति © ( सोचने की अभी बहुत ज़रूरत है हमें )



विवाद और मानव ► विवाद और मानव, दोनों का चोली दामन का साथ है ... प्राचीन काल, जब मनुष्य सभ्य नहीं था तभी से संघर्षों, ईर्ष्या, जलन आदि का चलन चला आ रहा है ...मगर उसका जो स्वरुप आज है उससे खुश होने की नहीं वरन शर्मिंदा होने की आवश्यकता है ... बच्चे ने छींक मारी, चुड़ैल पड़ोसन जिम्मेदार है ... घर, दफ्तर, बाज़ार सभी इसकी चपेट में हैं ... मंदिर के बाहर अधखाये… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 24, 2010 at 10:31pm — 3 Comments

किससे करूं मै बात ...!!!

किससे करूं मै बात ,उन जनाब की
जिनसे की है मुहब्बत बे-हिसाब की

दीखते नही वो दिन में ,रातें भी स्याह हुई
हुई मद्धम रोशनाई मेरी वफ़ा-ए-महताब की

किससे गिला करूं कहाँ तहरीर दूं ?
कोई ढूंढ लाये तस्वीर मेरे ख्वाब की

बिखर जाएगी शर्मो -हया इस जहाँ में
जो बरसों से हिफाजत में है हिजाब की

Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 24, 2010 at 10:00pm — 2 Comments

क्या होगी जिन्दगी तेरे बगैर....

न मिलेगा सुकूने दिल सियाह चाहे रोशनी में

खलबली सी फ़कत रहेगी तेरे बगै़र जिऩ्दगी में



तुम से बिछुड़कर हाल हमारा कुछ ऐसा होगा

तेरे तस्सवुर में उम्र कटेगा हर पल बेबसी में



बहारों का क्या फायदा गर एहसास में खि़जा

माहताब भी गर्क हो जाये सबे ता़रीकी में



नजरें दरिचा बन जाये दिल ख़्यालों का मकां

दफ्न हो जाये वजूद तन्हाई के आरसतगी में



ओ रूखसत होने वाले देता जा तदवीर कोई

दिलबस्तगी का बहाना होगा तेरे नामौजुदगी में



मुश्किल से मिलता… Continue

Added by Subodh kumar on September 24, 2010 at 8:00pm — 2 Comments

गरीब की सोचः-

सोचता है एक गरीब,
मैं कैसे अमीर बन पाउँगा।

इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।

कट जाता है समय,
दो शाम की रोटी जुटाने में।

फिर भी भरता नहीं पेट,
इस महगाई भरे जमाने में।।

रोते हैं बीबी और बच्चे,
जब मैं शाम को घर जाता हूँ।

कोशते हैं इस गरीबी को,
फिर भी मैं इसे नहीं भगा पाता हूँ।।

सोचता है एक गरीब,
मै कैसे अमीर बन पाउँगा।

इन गरीबों के दिनों को,
मैं कैसे भगाउँगा।।

Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:19am — 1 Comment

ऐ माँ.....

ऐ माँ मत मार मुझे,

मैं दुनियां में आना चाहती हूँ।



ऐ माँ मैं इस संसार में जन्म लेकर,

जीवन चक्र बढ़ाना चाहती हूँ।।



ऐ माँ मैं बड़ी होकर,

डॉक्टर, इन्जीनियर बनना चाहती हूँ।



ऐ माँ मैं किसी से शादी कर-कर,

उसका वंश बढ़ाना चाहती हूँ।।



ऐ माँ मत समझ बोझ मुझे,

मैं तेरा भी बोझ उठाउँगी।



ऐ माँ मैं तेरे बुढ़ापे को,

बेटे से ज्यादा सवारूँगी।।



ऐ माँ तुमने ये कैसे सोच लिया,

तुम भी तो किसी की बेटी हो।



ऐ माँ… Continue

Added by Deepak Kumar on September 24, 2010 at 11:00am — 1 Comment

::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: ©



::::: हाँ यहीं तो हो तुम ::::: © (मेरी नयी कविता)



हाँ यहीं तो हो तुम, और जा भी कहाँ सकती हो ...

तलाशते रहेंगे एक दूसरे में खुद को मगर ...

साये के साये में, साये को खोज पाएंगे कैसे ... ?

कोशिशें, तलाश, और यही ज़द्दोज़हद ढूंढ पाने की ...

जैसे खुद में दूसरा बाशिंदा बसा रखा हो हमने ...



गर हाथ थाम लेती जो तुम पास आकर मेरा ...

मौजूद साये को साये से अलहदा भी देख पाता ...

मगर ज़रूरत ही क्या तुम्हें अलहदा… Continue

Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 23, 2010 at 10:00pm — 5 Comments

तीन क़त'आत

//कोशिश//



तूने शब् -ऐ -विसाल को आने नहीं दिया ,

मैंने भी इस मलाल को आने नहीं दिया .

रखा है खुद को दूर तेरी याद से बहुत

दिल में तेरे ख्याल को आने नहीं दिया !

------------------------------------------

//पहचान//



नाम -ओ -निशान मेरा मिटेगा नहीं कभी

गुलशन में खुश्बुओ की झलक छोड़ जाऊंगा

गुलचीं मसल के देख मुझे मै वो फूल हूँ

हाथो में तेरे अपनी महक छोड़ जाऊंगा… Continue

Added by Hilal Badayuni on September 23, 2010 at 7:00pm — 3 Comments

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,

फिर भी जलने को दिल करता है ,

तुम्हारी तपिश से दिल में ,

एक हलचल सी उठती है ,

उसी हलचल में खो जाता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,



मगर तुम्हे आग कहना ग़लत होगा ,

कारण, तुम्हारा वो रूप भी देखा है ,

जो बर्फ की शीतलता लिए ,

तन मन को रोमांचित कर देता है ,

और मैं तुम्हारा हो जाता हूँ ,

तुम आग हो ये मैं जानता हूँ ,



कभी कभी लगता हैं मुझे ,

सावन की रिमझिम फुहार हो ,

और तुम जब बरसती हो… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on September 23, 2010 at 6:30pm — 1 Comment

चाँद दरिया में

चाँद दरिया में शब भर उतरता रहा .

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

एक जवां हुस्न के करवटें लेने से.

चाँदनी का बदन सर्द जलता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

चाँद छिपने का होता रहा तब भरम.

गेसू रुखसार पे जब बिखरता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

आ ना जाए क़यामत ये डर भी हुआ.

जब-जब सीने से आँचल सरकता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता रहा.

मापतपुरी से तन्हाई में जब मिले.

आईना शर्म का खुद चटकता रहा.

उनकी आगोश में मैं पिघलता… Continue

Added by satish mapatpuri on September 23, 2010 at 5:30pm — 2 Comments

विस्मृति

विस्मृति



पोस्त के लाल फूल

असंख्य

उन्हें छूकर बहती प्रमत्त हवा

ठंडी गुफा के मुहाने पर

पालथी मारे बैठा सूरज

देख रहा है फेनिल

धारा का झर-झर झरना ...

झागों के पत्ते अभी टूट कर बिछ गए हैं ..

पतझड़ जो लगा है ..

चट्टानों के बिछौनों पर ...

अपने चारों ओर

देवदार , चीड़ के गुम्बदों में कैद

एक फंतासी ...

जिस पर मखमल -सी बर्फ

अपना आसमान ताने खड़ी है



और ढरक रही है… Continue

Added by Aparna Bhatnagar on September 23, 2010 at 3:00pm — 3 Comments

कविता

अन्तर्ध्वन्द

अमर प्रेम के अंकुर को ,
संकोच और अनजानी धूप ने,
यूँ झुलसाया,
पतझड़ आने को बौराया है,
मन बसंत में उलझा है,
उम्र ढलने को आई,
मन यौवन में अटका है,
संस्कार,मर्यादा,मान,परिधि,
सब पीछे छूटा,
मन विकल हो भागा,
रिश्ते नातों के फंदों से,
बुन गया यौवन सारा,
जब सबसे मुक्त हुआ,
मन बंधने को भागा........

अलका तिवारी

Added by alka tiwari on September 23, 2010 at 11:00am — 3 Comments


प्रधान संपादक
"OBO लाईव तरही मुशायरा 3"- एक रपट !

"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :



"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"



मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :



//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया

एक निगह रास्ते पर जमी रह गई

मिट गई… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 11 Comments


प्रधान संपादक
"OBO लाईव तरही मुशायरा 2" की सभी ग़ज़लें एक ही जगह

ओपन बुक्स ऑनलाइन पर जनाब राणा प्रताप सिंह जी द्वारा (११-१५ सितम्बर-२०१०) मुनाक्किद "OBO लाईव तरही मुशायरा 2" में तरही मिसरा था :



"उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है"

(वज्न: १२१ २१२ १२१ २१२ २२)



उस मुशायरे में पढ़ी गईं सब ग़ज़लों को उनकी आमद के क्रम से पाठकों की सुविधा के लिए एक स्थान पर इकठ्ठा कर पेश किया जा रहा है !



// जनाब नवीन चतुर्वेदी जी //



(ग़जल-१)



फितूर जिनका लोगों को धता बताना है|

उन्हीं के कदमों में ही जा गिरा जमाना… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 2 Comments

इंतज़ार


तू
लौट आ
वेरना
मैं यूँ ही
जागती रहूंगी
रात रात भर
चाँदनी रातों मैं
लिख लिख कर
मिटाती रहूंगी
तेरा नाम
रेत पर
और हेर सुबह
नींद से
बोझिल पलकें लिए
सुर्ख,उनींदी
आंखों से
काटती
रहूंगी
कलेंडर से
एक और तारीख
इस सच का
सबूत
बनते हुए
की
एक
और रोज़
तुझे
याद किया
तेरा नाम लिया
तुझे याद किया
तेरा नाम लिया

Added by rajni chhabra on September 22, 2010 at 11:00pm — 1 Comment

ग़ज़ल.... "कमी रह गई"

वो गया तो गया चांदनी भी गयी.
भागते सावनों की रजा रह गयी.

ज़ाहिरा जागते तीरगी सो गयी.
जाग जा अब न तेरी धमक रह गयी.

ज़िन्दगी रेत का ढेर थी बागवाँ
सामना आँधियों का न था, रह गई.

दोड़ते हाँफते रहगुज़र हम रहे
होंसले में कभी ना कमी रह गई

जानता था कि वो चापलूसी न थी
मिलन क़ी आरज़ू थी, रह गई.

या खुदा आसरा ताउम्र तू रहा
आजमा ले मुझे, ना कमी रह गई.

Added by chetan prakash on September 22, 2010 at 8:00pm — 4 Comments

मन की बुझी ना प्यास तेरे दीदार की...

मन की बुझी ना प्यास तेरे दीदार की

मन का था भ्रम या हद थी प्यार की ।



क्यूँ नहीं समझता ये दिल अपनी हदों कों

किया सब जो थी मेरी कूवत अख्तियार की।



जिद में क्यूँ कर बैठा तू ऐसी खता

कर दी बदनामी खुद ही अपने प्यार की ।



सुर्खरू हो जाता है तन-मन तुझे देख कर

सुध-बुध नही रही इसे अब संसार की ।



हर तमन्ना में बस तमन्ना है तेरे दीद की

कयामत की हद बना रखी है इंतजार की ।



जमाना चाहे जितने कांटे बिछा दे राहों में

'कमलेश 'जीत आखिर… Continue

Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 22, 2010 at 7:30pm — 2 Comments

लेख : हिंदी की प्रासंगिकता और हम. --संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख :



हिंदी की प्रासंगिकता और हम.



संजीव वर्मा 'सलिल'



हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को… Continue

Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 6:30pm — 5 Comments

हाले बेबसी ....

शबनम नहीं बरसते आसमां से आग अब तो

जज़्बों से ब्यां हो दिल के दा़ग अब तो



इतने शौले उमड़ पड़े नाउम्मीदी के आतिश का

जलता नहीं दिल में उम्मीदों के चि़राग अब तो



सोचूँ तो दर्द बोलूँ तो दर्द हरसू दर्द दिखाई दे

काटों की तरह चुभने लगा गुलाब अब तो



जिऩ्दगी से नफरत होने लगी कज़ा से उल्फत

टूटे हुऐ दिल में सजता नहीं है ख़्वाव अब तो



जीने की तमन्ना में हम क्या क्या करते गये

हर सांस मागें जिऩ्दगी का हिसाब अब तो



क्या सोंचा जिन्दगी से… Continue

Added by Subodh kumar on September 22, 2010 at 5:00pm — 5 Comments

जिन्दगी समझौता ही सही

जिन्दगी समझौता ही सही

पर मुझे उससे प्यार है।

स्नेह, प्रेम, मर्यादा की

लहराती बयार है।

गम नहीं गर पूरी नहीं

होती, मेरी पुकार है।



जिन्दगी समझौता ही सही

पर मुझे उससे प्यार है।



उठते ही रसोई से समझौता,

यही तो जीवन की खुषियों का द्वार है।

बिजली, पानी, सफाई से समझौता

नियमित ही होते इनसे दो चार हैं।

जिन्दगी समझौता ही सही

पर मुझे उससे प्यार है।



कार्यालय पहुँचते ही काम से समझौता,

इसमें जीविका के संचालन का सार… Continue

Added by Jaya Sharma on September 22, 2010 at 2:04pm — 4 Comments

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