ग़ज़ल
कहूँ कैसे कि मेरे शहर में अखबार बिकता है
डकैती लूट हत्या और बलात्कार बिकता है |
तेरे आदर्श तेरे मूल्य सारे बिक गए बापू
तेरा लोटा तेरा चश्मा तेरा घर-बार बिकता है |
बड़े अफसर का सौदा हाँ भले लाखों में होता हो
सिपाही दस में और सौ में तो थानेदार बिकता है |
वही मुंबई जहाँ टाटा अम्बानी जैसे बसते हैं
वहीं पर जिस्म कईओं का सरे बाज़ार बिकता है |
चुने जाते ही नेता सारे…
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Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 3:24pm —
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पांव रिश्तों के जम रहे आखिर
हम हकीकत में कम रहे आखिर |
जिनके दिल पर भरोसा पूरा था
उनके हाथों में बम रहे आखिर |
तीर उस ओर थे दिखाने को
पर निशाने पर हम रहे आखिर |
दिन में लगता है भोग पंचामृत
शाम को पी तो रम रहे आखिर |
सच कहे और लड़े सिस्टम से
उसमे दम तक ये दम रहे आखिर |
नोट संसद में जेल में हत्या
काम के क्या नियम रहे आखिर |
जाने क्यूँ महलों तरफ…
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Added by Abhinav Arun on October 30, 2010 at 2:30pm —
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बदलते समय के साथ पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में कई बदलाव आए हैं और बाजार में जब से पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ आई है, तब से लिखने वाले कलमकारों की रूतबे कहां रह गए हैं, अब तो दिखने वाले कलमकारों का ही दबदबा रह गया है। सुबह होते ही काॅपी, पेन और डायरी लेकर निकलने वाले कलमकारों के क्या कहने, वैसे तो ऐसे लोग अपनी पाॅकिट में कलम रखना नहीं भूलते, लेकिन यह जरूर भूले नजर आते हैं कि आखिर वे लिखे कब थे। लोगों को अपनी कलम की धार दिखाने उनके लिए जुबान ही काफी है, जहां से बड़ी-बड़ी बातें निकलती हैं। ऐसे में…
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Added by rajkumar sahu on October 30, 2010 at 11:54am —
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आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
ताप लें रूह में जमी यादें
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
एक रिश्ते की आंच से शायद...
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये...
Added by Sudhir Sharma on October 29, 2010 at 11:30pm —
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का भाई जी ध्यान बा न ?
बड़ा ही अजीब शब्द है,लेकिन आजकल धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है भैया.....ये शब्द मानो लोगो की परछाई बन के चिपक सी गयी है ......जी ये शब्द है चुनावी महाकुम्भ में डुबकी लगाने के वास्ते उतरे हुए उम्मीदवारों के ...राह चलते हुए किसी पहचान वाले को देख लिए तो जल्दी से गाड़ी रुकवाते है ...और हाथ जोड़ते हुए कहते है "का भाई जी ध्यान बा न?" या "का जी बाबा तनी हमरो पर ध्यान देब"
कुछ भी कहा जाये पर बिहार के उन जिलो में चुनावी महापर्व रंग ला रहा है, जहा अभी चुनाव होना बाकि है.…
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Added by Ratnesh Raman Pathak on October 29, 2010 at 6:00pm —
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अक्सर कहा जाता है कि क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है और राजनीति भी इससे जुदा नहीं है। राजनीति में भी कई बार अनिश्चितताओं के दौर से राजनेताओं को गुजरना पड़ता है और वे जो चाहते हैं, वह सब नहीं होता तथा परिणाम उलट हो जाता है। ऐन चुनाव के पहले कई तरह के दावे उंची शाख रखने वाले नेताओं द्वारा किया जाता है, मगर जब नतीजे सामने आते हैं तो उन्हीं नेताओं के पैरों तले जमीं खिसक जाती है या यूं कह,ें सभी दावे की हवा निकल जाती है और मतदाताओं के रूख के आगे नेताओं के दावे बौने साबित हो जाते हैं। बावजूद कई नेता…
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Added by rajkumar sahu on October 29, 2010 at 10:54am —
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आकाश के उस कोने मे जहाँ मेरी दृष्टि की सीमा है….
देखता हूँ किसी ना किसी पक्षी को नित्य ही ….
क्या यह मेरा अरमान है ?
एकाकी ही दूर तक उड़ते जाना.. सत्य की खोज मे….
क्या यह मेरे मन का भटकाव है ?
कभी उत्साह की बरसात होती है…
आशाओं का सवेरा
मन के अंधेरे को झीना कर जाता है…..
और तब दिखते हो तुम मुझे,
आनंद मे नहाए एकदम तरोताज़ा
सूरजमुखी का एक फूल…
यह नही है कोई भ्रम या भूल.
वर्जनाओं के कड़े पहरे मे
जब दीवाले कुछ मोटी होजाती…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 29, 2010 at 9:00am —
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छुवन तुम्हारी यादों की भी न्यारी लगती है....
तुम हो तो यह सारी दुनिया प्यारी लगती है...
मन खोया रहता है तुम मे...
तुम हो मेरे अंतर्मन मे....
तुम से उत्प्रेरित मेरा मन...
तुमको करता नमन समर्पित
जीवन हो तुम. जीवन-धन भी,
सांसो मे तुम धड़कन मे भी...
दृष्टि तुम्हारी घोर तमस को झीना करती है...
तुम हो तो यह सारी दुनिया प्यारी लगती है...
क्या अंतर जो नही पास मे...
तुम हो मेरी सांस-सांस मे...
नेत्र बंद होते ही मेरे...
तुम… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 28, 2010 at 10:00pm —
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पूरा दिन यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने
हंसके डिब्बे में रखी थी परमल... फेवरेट थी मेरी...
मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग
तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...
औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से...
और फिर रात को पीले मकान की छत पर...
चाँद दो घंटे लेट था शायद...
चांदनी छानकर पिलाई थी...
पूरा दिन,यूँ ही गुज़ारा था निर्जला तुमने
आज भी रक्खा है...वो दिन मेरे सिरहाने कहीं...
Added by Sudhir Sharma on October 28, 2010 at 9:22pm —
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ऐसा हो नहीं सकता
मेरी राख़ को दुनियां वालो
गंगा में ना बहाना
प्रदूषित हो चुकी बहुत
और उसे ना बढ़ाना
करम अगर होंगे अच्छे
तो मिल जाएगी मुक्ति
गंगा जी में बहाने से ही
मुक्ति नहीं मिल सकती
यह है सब बेकार की बातें
ऐसा हो नहीं सकता
किसी के कुकर्मों का अंत
इतना सुखद नहीं हो सकता
गर ऐसा हो जाता
तो हार कोई पापी तर जाता
पाप करने से यहाँ
कोई ना घबराता
कोई ना घबरा----
दीपक शर्मा…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 28, 2010 at 5:30pm —
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मैंने फूलों को तोड़ा
सुखा दिया रखकर उसे
किताबों के दो पन्नों के बीच
फिर पंखुड़ी -पंखुड़ी अलग कर दी
फिर पैरो से कुचल दिया ॥
मगर ....
खुशबू नहीं मरी ॥
एक मैं हूँ ..दोस्तों
किसी इंसान के
ज़बान से शब्द फिसले क्या
तूफ़ान मचा देता हूँ
तुरंत अपने को
हैवान बना लेता हूँ ॥
Added by baban pandey on October 28, 2010 at 11:35am —
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मुक्तिका:
यादों का दीप
संजीव 'सलिल'
*
हर स्मृति मन-मंदिर में यादों का दीप जलाती है.
पीर बिछुड़ने से उपजी जो उसे तनिक सहलाती है..
'आता हूँ' कह चला गया जो फिर न कभी भी आने को.
आये न आये, बात अजाने, उसको ले ही आती है..
सजल नयन हो, वाणी नम हो, कंठ रुद्ध हो जाता है.
भाव भंगिमा हर, उससे नैकट्य मात्र दिखलाती है..
आनी-जानी है दुनिया कोई न हमेशा साथ रहे.
फिर भी ''साथ सदा होंगे'' कह यह दुनिया भरमाती है..
दीप…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:08am —
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मुक्तिका
सदय हुए घन श्याम
संजीव 'सलिल'
*
सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.
तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..
बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.
दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..
किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?
भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..
विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.
न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..
चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.
तारों के सलमे चुप रह बेदाग़…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:06am —
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सूरज ने फक्कड़ से कहा:
"मुझे झुक कर सलाम कर !"
"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"
"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"
"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"
"मगर क्यों ?"
"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"
"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"
"हाँ !"
"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"
"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम…
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Added by योगराज प्रभाकर on October 28, 2010 at 9:30am —
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नीरव-गुमसी चट्टानों पर
कटी-पिटी उभरी रेखाएँ
उन्मत्त काल का
हिंस्र वज्र-नख
जगह-जगह से नोंच गया है..।
अभिलाषा है कुछ विक्षिप्त
स्वप्न बच गए जूठे-जूठे
मसले थकुचे नुचे-चुथे से
स्वप्न बच गए जूठे-जूठे
धूसर उपलों की धूप तापती
विवश बिसुरती ध्वनि अकेली
अशक्त नव-जन्मी बाला-सी पसरी..
उठा सके बस भार श्वाँस का निश्चय का जी तोड़ परिश्रम..
कि,
मुँदी
उठी
झपकी
ठिठकी
रुक-ठहर
परख
तकती... .. तबतक…
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Added by Saurabh Pandey on October 28, 2010 at 6:00am —
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भूख करप्शन महंगाई बेकारी है
कैसी आगे बढ़ने की लाचारी है |
ट्यूशन के पैसे से पिक्चर देख रहे
अपने ही मुस्तकबिल से गद्दारी है |
वृद्धावस्था पेंशन पर दिन काट रही
बड़े हुए बच्चों की माँ बेचारी है |
काँटों का इक ताज सूली ले आओ
मेरी ईसा बनने की तैयारी है |
साठ साल से हरा भरा फल फूल नहीं
पौधे की जड़ में कोई बीमारी है |
आप कहाँ से इतनी खुशियाँ ले आये
क्या कुर्सी से आपकी रिश्तेदारी है |
किसे सफाई दे और किसका…
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Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:42pm —
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अग्नि की लौ में सिमटकर क्यों न एक दीपक बन जाऊं
तम प्रकाश की बनकर जली तम का नाम मिटाऊं ,,
जलकर खुद ही दूजों को , मैं रोशन कर जाऊं
छोड़ स्वार्थ परोपकार में,मैं अपना जीवन बिताऊं ,,
खुद के आभाव मिटा सकूँ न पर दूजों के आभाव मिटाऊं
जीता रहूँ दूजो के लिए , दूजों के लिए ही मर जाऊं ,,
ज्वाला है दीपक की रानी ,गीत ज्वाला के गाऊँ
गिने मुझे…
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Added by Ajay Singh on October 27, 2010 at 3:30pm —
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जो सहा वो कहा
मौन है ये ज़ुबां
दर्द की इन्तेहाँ |
एक कली गयी कहाँ
थक गया बाग़बां
हमसफ़र चल रहा
रास्ता जल रहा |
किसके हाथ असलहा
कौन हाँथ मल रहा
आज है कल कहाँ
आँख में जल कहाँ
हर तरफ प्यास है
गाँव में नल कहाँ |
योजना मृगतृष्णा
नैतिकता हे कृष्णा
ज़ोर ज़बर चल रहा
फैसला टल रहा
लाल सूर्य ढल रहा
गर्म ग्रह गल रहा |
एक सवाल है खड़ा
किससे कौन है बड़ा
गर्भ क्यों पल रहा
चल रही…
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Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:00pm —
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था उसके चेहरे पे सकून ,
माँ का आया था फोन ,
पाँच सौ रुपया मिल गया ,
तीन सौ राशन वाले को दिया ,
बाकी में छोटे भाई का पैंट ,
संग में सिलवा दिया हैं शर्ट ,
आज स्कूल भेजा हैं उसको ,
खरीद कर दिया हैं स्लेट ,
भाई स्कूल गया ये जान कर ,
था उसके चेहरे पे सकून !
उम्र के दसवे साल में ,
काम करता चाय की दुकान में .
घर से दूर बहुत दूर ,
हो कर आया था मजबूर ,
सपना था कुछ आँखों में ,
बडपन थी उसकी बातो में ,
पापा के इंतकाल के…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 27, 2010 at 2:00pm —
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मैं दूर पहाड़ों से आया
मैं दूर पहाड़ों से आया
जहाँ सर्द हवाएं बहती हैं
है व्यास पार्वती का संगम
जहाँ यादें मेरी बसती हैं
मेरे अपनें सभी वहीँ हैं
लेकिन मैं हूँ सबसे दूर
यह था किस्मत का लिखा
नहीं किसी का कसूर
ना जानें कब जा पाऊंगा
बापिस उन खूबसूरत फिजाओं में
कोई याद तो करता होगा
मुझको मेरे गाँव में
'दीपक शर्मा' था उस वक़्त मैं
अब हूं 'दीपक कुल्लुवी'
शक्ल-ओ-सूरत बदली,तखल्लुस बदला
लेकिन सीरत ना बदली
लेकिन…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 27, 2010 at 11:00am —
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