कुछ दिनों पहले घाट पर अपने मित्र मनोज मयंक जी के साथ बैठा था| रात हो चली थी और घाटों के किनारे लगी हाई मॉइस्ट बत्तियाँ गंगाजल में सुन्दर प्रतिबिम्ब बना रही थीं और मेरे मन में कुछ उपजने लगा जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ| इस ग़ज़ल को वास्तव में ग़ज़ल का रूप देने में 'वीनस केसरी' जी का अप्रतिम योगदान है और इसलिए उनका उल्लेख करना आवश्यक है| ग़ज़ल में जहाँ-जहाँ 'इटैलिक्स' में शब्द हैं वे वीनस जी द्वारा इस्लाह किये गए हैं| ग़ज़ल की बह्र है…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 22, 2012 at 4:00pm — 28 Comments
पृथ्वी दिवस हाइकु
Added by rajesh kumari on April 22, 2012 at 2:30pm — 10 Comments
मोहब्बत के फ़न…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 22, 2012 at 8:43am — 11 Comments
बंजर धरती दूषित हवा - जल, जंगल कटते जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
हरी - भरी धरती को आपने, बिन सोचे वीरान किया.
मतलब की खातिर ही आपने, वन - जंगल सुनसान किया.
नहीं बचेगा इन्सां भी, गर जीव - जंतु मिट जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.
ऐसे पर्यावरण में कैसे, कोई राष्ट्र विकास करेगा.
अब भी गर बेखबर रहे तो, माफ नहीं इतिहास करेगा.
रहते समय नहीं चेते तो, कर मलते रह जायेंगे.
ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम…
Added by satish mapatpuri on April 22, 2012 at 2:45am — 7 Comments
१. बौराया आम
चहका उपवन
आया बसंत
२. गरजे घन
नाच उठा किसान
बुझेगी प्यास
३.दहेज़ भारी
कुरीतियों की मारी
वधु बेचारी
४.अंकुर बनी
अभी नहीं खिली थी
भ्रूण ही तो थी
५.शोर है कैसा
कुर्सी पे तो है बैठा
अपना नेता
६ धर्म की आड़
बाबाओ का व्योपार
दुखी संसार
७. ठाट बाट में
कानून की आड़ में
कैदी दामाद
८. टूटे सपने
Added by MAHIMA SHREE on April 21, 2012 at 5:30pm — 18 Comments
शब्दों की जुगाली
करत रहा मनवा ये मवाली
लुच्चे से ख़यालात
लफंगे से अहसास
बदमाश जज़्बात
सोच रहा हूँ
सुना दूं इन्हें
उम्रकैद की सज़ा
डायरी के पन्नों में
Added by दुष्यंत सेवक on April 21, 2012 at 5:27pm — 9 Comments
बात कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है . आंदोलित कर्मचारी संगठनों द्वारा अपनी मांगों को शासन तक ज्ञापन के माध्यम से पहुँचाने हेतु निर्णय लिया गया कि सर्व प्रथम सभी कर्मचारी अपने - अपने कार्यालय में एकत्रित होंगे. फिर कार्यक्रम स्थल पर अपने -अपने बैनर के साथ जलूस के रूप में पहुचेंगे जहाँ पर मानव श्रखला बनाकर प्रदर्शन किया जायेगा. सवेरे से ही विभिन्न कार्यालयों के कर्मचारी अपने-अपने कार्यालय से एक जलूस के रूप में अपनी मांगों के समर्थन में नारे लगाते हुए पहुँचने लगे और मानव…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 21, 2012 at 2:30pm — 2 Comments
जिनसे इंसां का भी दर्जा नहीं पाया हमने,
मुद्दतों ऐसे ही इंसानों को पूजा हमने.
.
प्यार की पौध के मिटने से तो मर जायेंगे,
खून के अश्क से बागान को सींचा हमने.
.
हाँ उजाला नहीं होना मेरी इन राहों में,
शम्स ए पुरनूर से पाया ये अँधेरा हमने.
.
हमने मुंसिफ के भी हाथों में जो खंजर देखे,
कांपता दिल था मुक़दमा नहीं डाला हमने.
.
वहशी लोगों में किसी कांच से नाज़ुक हम थे,
हुज्जतों से बड़ी दामन ये बचाया…
ContinueAdded by इमरान खान on April 21, 2012 at 1:30pm — 8 Comments
मौका था गुरु भाई प्रकाश सिंह 'अर्श' की शादी का, और शहर था पटना
तो ऐसा कैसे होता कि गणेश जी से मुलाक़ात न हो ...
१८ अप्रैल को शादी और १९ अप्रैल को गणेश जी से मुलाक़ात ...…
ContinueAdded by वीनस केसरी on April 21, 2012 at 3:12am — 9 Comments
माँ तुम्हारी वंदना में गुन गुनाना चाहते हैं .
आरती के दीप नूतन फिर सजाना चाहते हैं.
छल छलाती जाह्नवी अमृत परसने फिर लगे.
मोक्ष की अवधारणा का सच बताना चाहते हैं.
जल नहीं अमृत समझकर पान नित करते रहें.
फिर वही पावन धरोहर हम बनाना चाहते हैं.
तट तुम्हारे तीर्थ पावन क्यों बदल इतने गए.
फिर वही गौरव पुराना हम दिलाना चाहते हैं.
धन्य उद्गम धाम गोमुख धन्य हिम मंडित शिलाएं.…
Added by Daya Shanker Pandey on April 20, 2012 at 9:30pm — 10 Comments
है मरना डूब के मेरा मुकद्दर भूल जाता हूँ
तेरी आँखों में भी है एक सागर भूल जाता हूँ
ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी तिलिस्मी है
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ
हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाकी है
पहुँचकर घर के दरवाजे पे दफ़्तर भूल जाता हूँ
तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ
न जी सकता हूँ तेरे बिन, न मरने दे तेरी आदत
दवा हो या जहर दोनों मैं रखकर भूल जाता हूँ
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 20, 2012 at 9:04pm — 11 Comments
ताजगी का आलम
बसंत की बौछार
कोयल की कुहूक
मंजरों की मादक खूशबू
चांदनी बहती रात
मनोहर एकांत वह क्षण.
परन्तु,
बेचैन-दुःखी-निराश
वह नौजवान.
इन्तजार करता किसी के आने का
शायद किसी बहार का
प्रेम का मारा
बिचारा.
टिक....टिक...
समय बीतती रही,
पर लगे पंक्षी की तरह
जैसे कोयल की कुहूक
पत्तों की सरसराहटें...
चेहरे पर जमाने भर की खुशियाँ समेटे
मुड़ा ही था वह नौजवान कि
तीन गोलियाँ एक-एक कर
सीधा दिल…
Added by Rohit Sharma on April 20, 2012 at 6:00pm — 4 Comments
माँ मुझे बचपन में मेरी उम्र के हिसाब से कुछ ज्यादा ही रोटियां दिया करती थीं. इंटरवल में सारे बच्चे जल्दी जल्दी खाना ख़त्म करके खेलने चले जाते थे. और मै अपना खाना ख़त्म नहीं कर पता था. तो डब्बे में हमेशा ही कुछ न कुछ बच जाता था, और मुझे रोज़ डांट पड़ती थी. मेरी बहन भी घर आ के शिकायत करती थी कि उसे छोड़ के इंटरवल में मै खेलने भाग जाता हूँ.
.
एक दिन मेरी बहन मेरे साथ स्कूल नहीं गई. मै ख़ुशी ख़ुशी घर आया और माँ को बताया की मैंने आज पूरा खाना खाया है. माँ को यकीन नहीं हुआ, उन्होंने…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 20, 2012 at 4:00pm — 20 Comments
कहाँ छिपी हो
पवन सी ?
हो मुझ में
जैसे कि
बदरी पवन में.
आती है बदरी
दिखाई भी देती है वो.
पर सत्य है ये कि
आती है सिर्फ पवन
नीर कि बूंदों को ले कर.
पर दिखती नहीं .
दिखाई तो सिर्फ देती है
बदरी ....
मैं - तुम
बदरी - पवन .
~ Dr Ajay Kumar Sharma
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on April 20, 2012 at 10:56am — 1 Comment
सदियों से शोषित-दमित समाज में -
तुम्हारे पास स्पष्ट समझ है
एकदम साफ रास्ता है -
लूट के घिनौने यंत्र को बरकरार रखने में !
लूट के लिए खून बहा देने में !
लूट के खिलाफ उठी हर आवाज को कुचल डालने में !
हैरत तो यह है कि,
कितनी आसानी से सफल हो जाते हो तुम,
अपने नापाक इरादों में !
सच ! तुमको कितना मजा आता है -
अस्मत लुटी औरतों की दर्दनांक मौत में !
लोगों को आपस में ही लड़ा डालने में !
उनके बीच में ही संदेह का बीज पनपा…
Added by Rohit Sharma on April 19, 2012 at 5:30pm — 4 Comments
हम तो बादल हैं ...........
बरसे कभी नहीं बरसे.....
सफ़र किया था शुरू बेपनाह दरिया से,
झूमे खेले लहर की गोदी में,
जिन के सीने में मोती और तन पे चाँदी थी,
तभी पड़ी जो वहां तेज़ किरन सूरज…
ContinueAdded by Sarita Sinha on April 19, 2012 at 5:00pm — 15 Comments
मुक्तिका: संजीव 'सलिल'
*
लफ्ज़ लब से फूल की पँखुरी सदृश झरते रहे.
खलिश हरकर ज़िंदगी को बेहतर करते रहे..
चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..
आँख से आँखें मिलाकर, आँख में कब आ बसे?
मूँद लीं आँखें सनम सपने हसीं भरते रहे..
ज़िंदगी जिससे मिली करते उसीकी बंदगी.
है हकीकत उसी पर हर श्वास हम मरते रहे..
कामयाबी जब मिली…
Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2012 at 7:30am — 5 Comments
इश्क की कोमल भावनाओ से
अछूती है मेरी कविताये
Added by दिव्या on April 18, 2012 at 2:30pm — 19 Comments
पिता जी,
संघर्ष अभी जीवित है
वो मरा नहीं
अब भी आपके सपने
उसकी आँखों में ही है
वो आँसुयों में बहे नहीं
यद्यपि
वह टूटा नजर आ रहा
परंतु , पिता जी
अभी संघर्ष जीवित है
वो मरा नहीं
अभी भी उसमे अरमान है
अनंत आकाश में उड़ने की ख्वाहिश है
जो आप ने उसे दिखाये थे
यद्यपि
वह थक कर रुक गया…
ContinueAdded by arunendra mishra on April 18, 2012 at 12:30am — 4 Comments
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ आभार ?
क्या लिखूं ?
जिसमें समा जाए -
-नहाई देह की खुशबू
सुबह मेरी जो महकाती रही है !
-और होंठो की मधुर मुस्कान
जो बिखरी मेरे होंठो पे ऐसे खिलखिलाकर ,
भर गई मेरे ह्रदय में
उष्णता अनमोल !
मरुथल में खिले जैसे
कुछ हँसी के फूल !
योग्य संभवतः नही पर
धन्य हूँ पाकर
दिए तुमने हैं जो उपहार !
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ…
ContinueAdded by Arun Sri on April 17, 2012 at 7:30pm — 11 Comments
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