आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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एक सार्थक सन्देश देती इस शानदार लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई आपको
कैसी विरासत
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दरवाजे की तरफ झांकते हुए महिंद्र उठ कर उसकी तरफ चल पड़ा, धीरे से शरीर को हिला कर उसे उठाने लगा। मगर वह तो पहले ही जाग रही थी, अब दिन रात उस कि लिए एक जैसे ही हो गए हैं । महिंद्र उसे साथ लेकर वाशरूम की तरफ चल पड़ा । उसको सहारा देकर वो वाशरूम की तरफ लिजा रहा था अचानक ही उसका दायाँ पाँव टेबल से टकरा गया,और प्लास्टिक की भरी पड़ी सभी दवाईयाँ टेबल से नीचे गिर गई । उसे वाशरूम छोड़ कर मैं दवाईयों को इकठ्ठा करने लगा,तब मुझे लगा कि माँ कही बात कि अगर दवाईयों गिर जाए तो मरीज़ ठीक हो जाता । कुछ देर कि बाद उस ने उसने वाशरूम के दरवाजे की आवाज सुनी और रसोई से उस तरफ चला पड़ा ।
सहारा दे कर उसे लिटा कर वह फिर रशोई में चल गया ।
“कितने दिन हो गए, काके का फोन नहीं आया” उसने लेटी लेटी कहा, और पल्लू से ऑंखें पोंछने लगी ।
‘न याद करा कर, उड़े पंछी नया टिकाना बना लेते हैं फिर वापस नहीं आते” ।
चाय बना कर महिंद्र उस का पास ही आ कर बैठ गया ।
महिंद्र पास बैठा सोच रहा था,सुगर ने जिस तरह उस को गिरा दिया,लगता नहीं अब कोई उसे उठा पायेगा, ये सोच कर वह खुद को पता नहीं कहाँ ले गया और उसको दिल के दर्द की आवाज़ ने कहा “अब तुम क्या जी रहे हो, अब तो एन जी ओ की मीटिंग में नहीं जा सकता हूँ । अचानक उस की जुबाँ से निकल गया, ‘मेरी तो मौत से पहले ही मौत हो गई’,
महिंद्र को लगा कि शांति, और वह, एक लाश दूसरी तरफ देख रही है।
‘मगर .................... “‘उसने शांति की तरफ देखते हुए कहा ।
ये कह महिंद्र उसके रात के कपड़े ले वाशरूम की तरफ चला पड़ा ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
पति पत्नी के प्रेम से ओतप्रोत इस रचना में अभी और मेहनत करने की आवश्यकता लग रही है आदरणीय मोहन बेगोवाल जी| सादर बधाई सृजन के इस प्रयास हेतु|
जीवन के संध्या काल में अकेले छूट गए दंपत्ति के हालातों को बयाँ करना चाहा है आपने इस रचना में वर्णन भी मार्मिक है , हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीय... पर जैसा आदरणीय चंद्रेश जी ने कहा कुछ और कसावट के साथ प्रदत्त विषय से जोड़ा जाता तो कथ्य और प्रभावी होता ....सादर
अच्छा प्रयास है आ० मोहन बेगोवाल जीI मगर जैसा कि भाई चंद्रेश कुमार छतलानी जी ने भी कहा है अभी यह लघुकथा बहुत मेहनत मांग रही हैI बहरहाल, इस सद्प्रयास हेतु हार्दिक अभिनन्दन स्वीकार करेंI
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