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ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं

.
सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं 
जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.
.
ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं    
अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.
.
ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ   
ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.
.
मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब  
किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.
.
सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?
.
परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं.
.
निलेश नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 178

Comment

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Comment by surender insan 3 hours ago

आदरणीय नीलेश भाई जी सादर नमस्कार जी। अहा! क्या कहने भाई जी बेहद शानदार और जानदार ग़ज़ल हुई है। अभी उठा था उठते ही इतनी लाज़वाब ग़ज़ल पढ़ने को मिली दिन बन गया। बहुत बहुत बधाई हो इस ग़ज़ल के लिए।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' 21 hours ago

वाह आ. नीलेश जी बहुत ही खूब ग़ज़ल हुई....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2025 at 9:11pm

आदरणीय  निलेश भाई  हमेशा की तरह अच्छी ग़ज़ल हुई है,  हार्दिक  बधाई वीकार करें  

Comment by Chetan Prakash on June 24, 2025 at 10:15pm

आदाब, आदरणीय,  ' नूर ' मैंने आपके निर्देश का संज्ञान ले लिया है! 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 24, 2025 at 12:48pm

बहुत बहुत आभार आ. सौरभ सर ..
आप से हमेशा दाद उन्हीं शेरोन को मिलती है जिन पर मुझे दाद की अपेक्षा रहती है.
धन्यवाद 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 23, 2025 at 3:41pm

आदरणीय नीलेश भाई, 

आपकी इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद और कामयाब अश'आर पर बधाइयाँ

विशेषकर निम्नलिखित दो शेरों ने तो निरुत्तर कर दिया है - 

सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं? ... इस शेर पर बार-बार बधाइयाँ
.
परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं... क्या कमाल का कहन हुआ है! वाह-वाह ! 
मैं वस्तुत: जिन परिस्थितियों में अपने गाँव पर हूँ, इस परिप्रेक्ष्य में इस शेर ने दिल की गहराइयों में हिलोड़ मचा दिया है। 

हर उम्दा शेर कई परतों में होता है। सुनने वाला अपनी समझ से  उसके परतों को उभारता है। जितनी परतें उतना ही कामयाब वह शेर। 

हार्दिक बधाइयाँ

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 23, 2025 at 12:54pm

धन्यवाद आ. शिज्जू भाई 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 23, 2025 at 12:53pm

आ. चेतन प्रकाश जी,
आपको धुआ स्वीकार नहीं हैं तो यह आपका मसअला है. मैंने धुआँ क़ाफ़िया  प्रयोग में लाया है जिस पर कोई दलील देने की जगह आप मुझे आ. सौरभ सर से पूछताछ करने की सलाह दे रहे हैं जो आश्चर्यजनक और क्षोभ कारक है.
आपके लिए कुछ उदाहरण पेश हैं.   
मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
जला है कैसे ये आबाद सा मकाँ देखो.. इब्राहीम अश्क 
.
इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले
अब जो बादल हैं धुआँ थे पहले. अज़हर इनायती 
.

तू अपने फूल से होंटों को राएगाँ मत कर
अगर वफ़ा का इरादा नहीं तो हाँ मत कर
.

तू मेरी शाम की पलकों से रौशनी मत छीन
जहाँ चराग़ जलाए वहाँ धुआँ मत कर.  क़ैसर-उल जाफ़री
जब आपने मुझे सौरभ सर से पूछताछ की सलाह दे ही दी है तो मेरी भी एक सलाह को आप अम्ली जामा पहनाएं.. ज़रा रेख्ता अथवा कविताकोश पर जा कर ग़ज़लों का अध्ययन करें. इससे आपको पढने -समझने में आसानी होगी और मुझ जैसे रचनाकर्मियों का समय बचेगा. 
सादर 

Comment by Chetan Prakash on June 21, 2025 at 7:46pm
आदरणीय, 'नूर साहब, ग़ज़ल लेखन पर आपके सिद्धहस्त होने से मैंने कब इन्कार किया। परम्परागत ग़ज़ल के स्वरूप को आदरणीय आप भी स्वीकार करते हैं, यह आपकी दलील भी कह रही है। कुछ शायर उदाहरण के लिए मोहतरम जनाब, हसरत मोहानी, और हसन कमाल साहब बड़े शायर हैं, सो मुझे आपके जवाब से कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु " धुआ" मुझे स्वीकार नहीं हैं, आदरणीय ! आप चाहें तो आदरणीय, भा ई सौरभ साहब से पूछताछ कर सकते हैं, बंधुवर !

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 19, 2025 at 6:41pm

आदरणीय  निलेश जी अच्छी ग़ज़ल हुई है, सादर बधाई इस ग़ज़ल के लिए।  

कृपया ध्यान दे...

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