असाधारण आस
हवा की लहर का-सा
हलका स्पर्ष
कि मानो कमरे में तुम आई
मेरे कन्धे पर हलका-सा हाथ ...
छू कर मुझे, स्वपन-सृष्टि में
पुन: विलीन हो गई
कुछ कहा शायद
जो अनसुना रहा
या जो न कहा
वह मेरे खयालों ने सुना
कोई एक खयाल अधूरा
जो पूरा न हुआ
कण-कण काँप रहे तारों के
तिमिर-तल के तले
खयाल जो पूरा न हुआ
मुराद
बन कर रह गया, जैसे
अँधेरे स्वप्न से जागा कोई, सो गया
तुम्हारे दिल की धड़कन भी
इसी मुराद में थिरकती
तुम्हीं से अलग, पर तुमसे ज़्यादा
वह मुझमें धड़कती
और तुम सुन-सुन उसको
अनपेक्षित-सी, पहुँच जाती थी पास
सिर मेरे कन्धे पर
मेरी साँसों के स्पर्ष से शरमाए
आकांक्षित ओंठ तुम्हारे मुस्करा देते
पलकें कभी खुलती कभी मुंदती
उस स्वप्न-सृष्टि में अनुरंजित तुम
अधजगी-सी सोई निश्चल सरोवर-सी
तुम्हारी वह पहचानी
अपनी-सी धड़कन भी अब है
पुराने घाव-सी
थर्राता शीत-भरा रात का पक्षी
मेरा मन
नि:स्तब्ध .. उदास .. छिन्न-भिन्न
अँधियारे सूने में अब मेरी अनवस्थाएँ गहरी
एक दिया आस का फिर भी जलती लौ से
काँप-काँप है बटोरता रहा
मेरे अस्तित्व के अव्यवस्थित कण
कि लौट आएँगी तुम्हारी निर्दोश आँखे
तुम्हारे स्नेह-स्वरों की अनुगूँज लिए
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आपका हार्दिक आभार, आ० नरेन्द्र जी।
आपका हार्दिक आभार, आ० लक्ष्मण जी।
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । असाधारण प्रस्तुति के लिए कोटि कोटि बधाई ।
आपका हार्दिक आभार, बृजेश जी।
वाह आदरणीय भावों बड़े ही प्रभावशाली अंदाज में शब्दों में पिरोया है...बहुत सुन्दर
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब। सराहना के लिए हार्दिक आभार।
आपका हार्दिक आभार, सतविन्द्र जी
आपका हार्दिक आभार, सुरेन्द्र जी
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