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हरम में अब समझदारी से बचिए ।
हसीनों की नशातारी से बचिए ।।
अगर ख्वाहिश जरा सी है सुकूँ की ।
रकीबों की वफादारी से बचिए ।।
यहाँ दुश्मन से कब खतरा हुआ है ।
यहाँ अपनों की गद्दारी से बचिए ।।
नियत सबकी बड़ी खोटी दिखी है ।
नगर में आप मुख्तारी से बचिए ।।
रहेगी आपकी भी शान जिंदा ।
जरूरत है कि बेकारी से बचिए ।।
है करके कुछ दिखाने की तमन्ना ।
तो पहले अपनी खुद्दारी से बचिए ।।
तरक्की खुद चली आएगी इक दिन ।
मगर मजहब की बीमारी से बचिए ।।
वो अक्सर पीठ पर मारा है ख़ंजर ।
कभी दुश्मन की मक्कारी से बचिए ।।
हकीमों से अगर दौलत बचानी ।
मुहकमा गैर सरकारी से बचिए ।।
हजारों लोग फंदे फेकते हैं ।
नए चेहरों की इफ्तारी से बचिए ।।
बड़ी शातिर अदाएं ढूढ़तीं हैं ।
अभी दिल की गिरफ्तारी से बचिए ।।
मौलिक अप्रकाशित
नवीन मणि त्रिपाठी
Comment
जनाब नवीन साहिब ,ग़ज़ल की अच्छी कोशिश हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं , जनाब अजय साहिब के मश्वरे पर गौर कीजियेगा ।
अच्छी ग़ज़ल है आ. नवीन जी. आ. अजय जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
बहुत खूब । बधाई
आ0 अजय तिवारी जी विशेष आभार आपकी इस्लाह अत्यंत महत्वपूर्ण लगी । अभी अविलम्ब ठीक करता हूँ ।
आ0 कबीर सर सादर आभार के साथ नमन
आ0 कबीर सर सादर आभार के साथ नमन
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
जनाब अजय तिवारी जी की बातों का संज्ञान लें ।
आदरणीय नवीन जी,
कुछ अशआर बहुत ही अच्छे हैं लेकिन कुछ अभी वक़्त मांग रहे हैं. मतले में मेरे ख्याल से 'नशातारी' के बजाय 'अदाकारी' ठीक रहेगा.
' नियत सबकी बड़ी खोटी दिखी है,' शुद्ध शब्द 'नीयत' है. संस्कृत के 'नियत' का अर्थ दूसरा है.
वो अक्सर पीठ पर मारा है ख़ंजर । > वो अक्सर पीठ में मारे है ख़ंजर > वो अक्सर पीठ में मारें हैं ख़ंजर
कभी दुश्मन की मक्कारी से बचिए । > जरा दुश्मन की मक्कारी से बचिए > मियां अपनों की मक्कारी से बचिए
हकीमों से अगर दौलत बचानी । > हकीमों से है जो दौलत बचानी
छठे शेर को फिर से कहना बेहतर होगा.
'है करके कुछ दिखाने की तमन्ना
तो पहले अपनी खुद्दारी से बचिए' बहुत खूब!
हादिक बधाई. सादर
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