212 212 212 212 -
रंज -ओ-ग़म ज़िंदगी के भुलाते रहो
गीत ख़ुशिओं के हर वक़्त गाते रहो
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मोतियों की तरह जगमगाते रहो
बुल बुलों की तरह चहचहाते रहो
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जब तलक आसमां में सितारें रहें
ज़िंदगी में सदा मुस्कुराते रहो
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इतनी खुशियां मिले ज़िंदगी में तुम्हे
दोनों हांथों से उनको लुटाते रहो
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सिर्फ़ कल की करो दोस्तों फिक़्र तुम
जो गया वक़्त उसको भुलाते रहो
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हम भी तो आपके जां निसारों में हैं
क़िस्सा- ए- दिल हमें भी सुनाते रहो
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ख़ुद ब ख़ुद ही फ़ज़ाएँ महक जाएंगी
अपनी ज़ुल्फ़ें हवा में उड़ाते रहो
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रात यूँ ही न कट पाएगी जाग कर
कुछ तो मेरी सुनो कुछ सुनाते रहो
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रोशनी कम "रज़ा" हो न जाये कहीं
तुम शम्अ अंजुमन में जलाते रहो
....
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर',
ग़ज़ल में अपनी महब्बत की बारिश करने के लिए दिली शुक्रिया.
बृजेश भाई आपकी महब्बत सलामत रहे,
ग़ज़ल पसंद करने के लिए शुक्रिया.
मुहतरमा कल्पना भट्ट जी,
ग़ज़ल में आपकी शिर्कत और आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया.
जनाब अजय तिवारी जी,
आपकी नवाजिश के लिए शुक्रगुजार हूँ.
आ. भाई सलीम जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
वाह बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय सलीम जी...सादर
बहुत सुंदर ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय सलीम रज़ा जी | हार्दिक बधाई |
आदरणीय सलीम साहब, खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब,
बहुत ही आशावादिता का संचार और आग्रह करती ग़ज़ल ।हर शे'र ज़िंदा रहने की प्रेरणा जगाता है । दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए ।
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