खूंटी पर टंगी कमीज़ को ....
जब जब
मैं छूती हूँ
खूंटी पर
टंगी कमीज़ को
मेरा समूचा अस्तित्व
रेंगने लगता है
उस स्पर्शबंध के आवरण में
जहां मेरा शैशव
निश्चिंत सोया करता था
अब
जब आप नहीं रहे
मैं इस कमीज़ में
आपको महसूस करती हूँ
सामना करती हूँ
हर उस दूषित दृष्टि का
जो मेरे शरीर पर
अपनी कुत्सित भावनाओं की
खरोंचें डालती है
मेरी दृष्टिहीनता को
मेरी कमजोरी मानती है
न, न
आप क्यूँ डरते हैं
आप ने ही तो मुझे
मन की आँखों से देखना
सिखाया है
आप नहीं हैं
पर है
इस खूंटी पर
टंगी कमीज में
आपके होने का विश्वास
पापा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कल्पना भट्ट जी सृजन के भावों को सहमति देती आपकी मधुर प्रशंसा का दिल से आभार ।
अत्यंत मार्मिक रचना हुई है आदरणीय सुशिल सरना जी | हार्दिक बधाई |
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Mahendra Kumar जी सृजन के आत्मीय भावों से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार।
अत्यंत मार्मिक, वाह
पिता-पुत्री के रिश्ते को "खूंटी पर टंगी कमीज़" के माध्यम से बहुत ख़ूबसूरती से उकेरा है आपने आ. सुशील सरना जी. मेरी तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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