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हर जगह नफरत का आलम, क्या करें
ज़ह्र होता ही नही कम क्या करें ||
मौत का सामान ख़ुद इंसाँ हुआ
और जुबाँ उसकी हुई बम क्या करें ||
वाह वाह आदरणीय सुरेन्द्र जी इस ग़ज़ल में बहुत ही दिलकश और हकीकी अशआर कहे हैं आपने ... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं।
आदरणीय सुरेन्द्र जी अच्छी गजल कही आपने बधाई स्वीकार करें
बहुत खूब ग़ज़ल के लाइट बधाई स्वीकार करें ....
आगामी अभ्यास के रूप में अब हर मिसरे को पूरा कसने का प्रयास कीजिये ...
बधाई
सादर
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