इक लफ्ज़ मुहब्बत का ....
लम्हों की गर्द में लिपटा
इक साया
ओस में ग़ुम होती
भीगी पगडंडी के
अनजाने मोड़ पर
खामोशियों के लबादे ओढ़े
किसी बिछुड़े साये के
इंतज़ार में
इक बुत बन गया
धुल न जाएँ
सर्दी की बारिश में
कहीं लंबी रातों के
पलकों के लिहाफ़ में
अधूरे से ख़्वाब
वो धीरे धीरे
कोहरे की लहद में
खो गया
इक लफ्ज़
मुहब्बत का
खामोश ही सो गया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Mahendra Kumar जी प्रस्तुति आपकी आत्मीय प्रशंसा से उपकृत हुई ... हार्दिक आभार।
आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी प्रस्तुति को अपने स्नेह का आशीर्वाद देने का हार्दिक आभार।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी प्रस्तुति के भावों को स्वीकृति देती आपकी मधुर प्रशंसा का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब रचना को अपने स्नेह से पल्लवित करने का हार्दिक आभार।
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