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गजल/धूप
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1222 1222 1222 1222

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करो  तय दोस्तो  थोड़ा  जिगर में  धूप का होना
मिटा सीलन को देता है कि घर में धूप का होना /1

दुआ मागी थी रिमझिम में जरा सी धूप तो दे दो
अखरता क्यों तुझे  है अब डगर में धूप का होना /2

जहाँ  देखो  वहीं  जलवा  करें  साए  इमारत के
पता चलता किसे है अब नगर में धूप का होना /3

चलो आँगन में रख आए चटखती हड्डियों को अब
जरूरी   है  बुढ़ापे   की   उमर  में   धूप   का  होना /4

करो उम्मीद मिल जाए सरों की सीध में सूरज
पता देता है साहस का सफर में धूप का होना /5

हटाओ चिलमनों को अब घरों से औ दिमागों से
तबीयत साज  रखता है  सहर में धूप का होना /6

चलो कुछ देर बैठें अब किनारे झील के यारो
समा रंगीन करता  है असर में धूप का होना /7


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मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment by Rahul Dangi Panchal on March 13, 2016 at 9:47pm
सुन्दर ग़ज़ल हुई भैया जी
Comment by Samar kabeer on March 13, 2016 at 10:38am
जनाब लक्ष्मण धामी'मुसाफ़िर'जी आदाब,"धूप"शीर्षक पर अच्छी ग़ज़ल कही आपने दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
4थे शैर में"उमर"प्रचलन का शब्द है, सही शब्द है "उम्र"देखिएगा ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on March 12, 2016 at 7:50pm
बहुत बहुत ख़ूब। बधाई आदरणीय धामी जी।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 12, 2016 at 7:19pm

क्या बात है क्या बात है आदरणीय बहुत खूबसूरत 

Comment by रामबली गुप्ता on March 12, 2016 at 4:34pm
बहुत बहुत बधाई इस रचना हेतु
Comment by Dr.varsha choubey on March 11, 2016 at 3:16pm
सुन्दर गजल जी बधाई आपको
Comment by narendrasinh chauhan on March 11, 2016 at 2:31pm

खूब सुन्दर रचना

Comment by amod shrivastav (bindouri) on March 11, 2016 at 12:23pm
आ बेहतरीन सादर बधाई

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