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Featured Blog Posts – July 2013 Archive (17)

मेरा अभीष्ट

मेरे जीवित होने का अर्थ -

-ये नहीं कि मैं जीवन का समर्थन करता हूँ  !

-ये भी नहीं कि यात्रा कहा जाय मृत्यु तक के पलायन को  !

 

ध्रुवीकरण को मानक आचार नही माना जा सकता !

मानवीय कृत्य नहीं है परे हो जाना !

 

मैं तटस्थ होने को परिभाषित करूँगा किसी दिन !

संभव है-

कि मानवों में बचे रह सके कुछ मानवीय गुण !

मेरा अभीष्ट देवत्व नहीं है !

.

.

.

……………………................………… अरुन श्री…

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Added by Arun Sri on July 16, 2013 at 1:38pm — 17 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघु कथा : दर्द (गणेश जी बागी)

ज फिर किसी ने पारस को चाकू मार दिया था, उसकी किस्मत अच्छी थी कि घाव बेहद मामूली था.  डाक्टर बाबू देखते ही पारस को पहचान गये, क्योंकि कोई आठ दस महीने पहले की ही तो बात है जब पारस के घर मे डकैती हुई थी और बदमाशों ने पारस के शरीर पर चाकू से अनगिन वार किये थे, तब इलाज के लिए उसे इसी डाक्टर के पास लाया गया था, गंभीर रूप से ज़ख़्मी होने के बावजूद भी इस बहादुर नौजवान के मुँह से उफ़ तक नहीं निकली थी, लेकिन इस बार अत्यधिक…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 15, 2013 at 5:30pm — 63 Comments

शृंगार रस के दोहे

साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद

जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद

 

हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात

अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात

 

आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ

पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ

 

सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात

त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात

 

छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप

सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप

 

प्रिंटर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2013 at 2:34pm — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री

ग़ज़ल लिखने का एक प्रयास और किया है मैने, प्रकृति की सुंदरता का हमेशा से ही कायल रहा हूँ इसलिए मेरी रचना प्रकृति के आस पास ही रहती है. 

वज्न -1222 1222 1222

हजज मुसद्दस सालिम

सुहाने ख्वाब से मुझको उठा गुज़री

वो लहराती हुई बादे सबा गुज़री

 

दिखी थी पैरहन वो धूप की लेकर

कभी शबनम की वो ओढ़े कबा गुज़री

 

फ़िज़ा सरशार भीगी…

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Added by शिज्जु "शकूर" on July 15, 2013 at 1:00pm — 7 Comments

प्रश्न उठाओ ...

जरूरत है प्रयास की 

कोशिश की 

कंक्रीट का जंगल 

और ठसाठस सड़के हैं 

नीला अंबर धूल धूसरित है 

उहापहो की स्थिति है 

इतने विशाल शहर में

हम और तुम निहायत अकेले हैं 

जीवन का उद्देश्य 

केवल जीवन यापन है 

नित्य क्रम की नियति को 

समझ लिया खुशी का समागम 

खोखली हंसी 

छिछला प्यार 

दिखावे के लिए मिलना जुलना 

केवल सतही संतुष्टि है 

झाँक कर देखा अंदर 

तो अजीब तरह का खोखलापन है 

गाहे…

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Added by Amod Kumar Srivastava on July 14, 2013 at 10:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल - कुछ अपने

वो मानते हैं कि हो सकती उनसे कोई खता नहीं

खुद तक तो खुदा के सिवा कोई और पहुंचता नहीं|

वो जुस्तजू करते हैं हमारे क़दमों के निशाँ की भी

उनके हाथों में छुपे खंजर को तो कोई खोजता नहीं|

वो जिन्होंने तय की हैं बुलंदियां लाशों की सीढ़ी पे

कदमों में लगे खून से कब फिसल जाएँ पता नहीं|

वो हो जाते हैं नाराज़ हमारी ज़रा सी लडखडाहट से

जैसे उनके जहां में मदमस्त तो कोई गिरता नहीं|

वो हैं जैसे भी दूर उनसे सोच में भी नहीं…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 14, 2013 at 10:00pm — 12 Comments

आनंद / दिलीप कुमार तिवारी

आनंद जीवन है , शब्द मात्र नहीं

संसार के बियाबान  सुनसान  अधेरी राहों  में,

रोशनी की तरह इसकी तलाश  है

हम तुम यह जग जबसे है आनंद आस -पास है



ये उजड़ी गलियों में भी था ,थकी हुई सडको में भी है , तुम्हारे पगडण्डी में भी है i

बस इसे पाने का विश्वाश खो गया है ,हमारा अपनापन इससे कितनी दूर हो गया है i



कही हम इसे  बदनाम बस्तियों में ढूढ़ते है 

कही हम अपने से बड़ी हस्तियों में ढूढ़ते है

अल्पकालीन किन्तु सर्वव्याप्त है  

जितना मिला क्या…

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Added by दिलीप कुमार तिवारी on July 14, 2013 at 7:30pm — 3 Comments

गंगे ! (रवि प्रकाश)

माँ वो है-

जो जन कर जुड़ जाती है

चेतना के अंधकूपों में भी

अपने जने का करती है पीछा,

एक सूत्र बन कर संतति से हो जाती है तदाकार,

पालना ही जिसका

सार्वत्रिक,सार्वभौमिक और शाश्वत संस्कार;

शायद इसीलिए हमारे

उन दिग्विजयी पड़दादाओं ने

तेरे कगारों पर दण्डवत कर के

उर्मिल जल की

अँजुरी भर के

कोई संकल्प किया था

और बुदबुदाये थे कितने ही मंत्र अनायास

तुझे माँ कह कर।

वो शायद आदिम थे

इसीलिए भ्रमित थे,असभ्य थे

और हम सभ्य…

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Added by Ravi Prakash on July 13, 2013 at 5:30pm — 10 Comments

कुछ दोहे भोर के ~~

मन सिहरा ,ठहरा तनिक ,देखा अप्रतिम रूप ,

भोर सुहानी ,सहचरी ,पसर गई लो, धूप !

रश्मि-रश्मि मे ऊर्जा और सुनहरा घाम,

बिखर गया है स्वर्ण-सुख लो समेट बिन दाम !

सुन किलकारी भोर की विहंसी निशि की कोख ,

तिमिर गया ,मुखरित हुआ जीवन में आलोक !

उगा भाल पर बिंदु सा लो सूरज अरुणाभ ,

अब निंदिया की गोद में रहा कौन सा लाभ !

_______________प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ,लखनऊ 

(मौलिक और अप्रकाशित )

Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 12, 2013 at 11:00pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")

रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")

२ १ २ २  २ १ २ २  २ १ २ २  २ १ २ २ 

बहर ----रमल मुसम्मन सालिम

 रदीफ़ --हम देखते हैं 

काफिया-- इयाँ 

आज क्या-क्या जिंदगी के दरमियाँ हम देखते हैं 

जश्ने हशमत या मुसल्सल  पस्तियाँ हम देखते हैं 

 

खो गए हैं  ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में 

गर्दिशों  में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं 

 

ख़ुश्क हैं पत्ते यहाँ अब यास में…

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Added by rajesh kumari on July 9, 2013 at 5:30pm — 40 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
अनसुलझे प्रश्न // डॉ० प्राची

प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन 

कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण 

अटल काल पर

पदचिन्हों की थाप छोड़ता 

बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...

अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर

देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा 

मृगमारीची सम

अनजाना - जाना पहचाना... 

खामोशी से, मन ही मन

अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को 

फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...

वो,

अलमस्त मदन 

अस्पृष्ट वदन 

गुनगुन गाये ऐसी…

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Added by Dr.Prachi Singh on July 4, 2013 at 1:00pm — 43 Comments

कुछ दोहे राहत के नाम ~~

उड़न -खटोले पर चढ़े, आये 'प्रभु' निर्दोष,

अपनी निष्क्रिय फ़ौज में जगा गए कुछ जोश !



राहत की चाहत जिन्हें उन्हें न पूछे कोय ,

इधर-उधर घूमे फिरे और गए फिर सोय !



भटक रहे विपदा पड़े, ढूंढ रहे हैं ठांव ,

ये अपने सरकार जी कब बांटेंगे छाँव ?



विपदा खूब भुना रहे सत्ता का सुख भोग,

भूखे,नंगे ,काँपते इन्हें न दिखते लोग !



श्रेय कौन ले जाएगा मची हुई है होड़,

जोड़-तोड़ के खेल…

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Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 2, 2013 at 11:15pm — 18 Comments

सार/ललित छंद, प्रथम प्रयास ----- वेदिका

सार/ललित छंद १६ + १२ मात्रा पर यति का विधान, पदांत गुरु गुरु अर्थात s s से,, छन्न पकैया पर प्रथम प्रयास / क्रिकेट विषय 

छन्न पकैया छन्न पकैया, टॉस करेगा सिक्का  

कौन चलेगा पहली चाली, हो जायेगा पक्का  ।। १ 

छन्न पकैया छन्न पकैया, कंदुक लाली लाली 

इक निशानची ठोकर मारे, गिल्ली भरे उछाली।। २ 

छन्न पकैया छन्न पकैया, बादल छटते जाये 

आँखों में है धूर…

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Added by वेदिका on July 2, 2013 at 5:30pm — 39 Comments

मौसम की मनमानी

मौसम की मनमानी है
सब आँखों में पानी है।

छाया बादल ये कैसा
दर्द दिया रूहानी है।

पावन है जग में सबसे
गंगा का ही पानी है।

जगती है आंखे तेरी
शब को यूं ही जानी है।

तुझको पाने की ख्वाहिश
हमने मन में ठानी है।

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Ketan Parmar on July 2, 2013 at 4:30pm — 15 Comments

लोकगीत



मेरे पिया गए परदेश रे 

ना मनवा लागे रे 

सावन आया 

ददुरबा बोले 

ददुरबा बोले ददुरबा बोले 

बादल गरजे तेज रे 

ना मनवा लागे रे 

चिठ्ठी आयी ना 

पाती आयी 

ना आया कोई सन्देश रे 

ना मनवा लागे रे

सोलह श्रृंगार 

ना मन को भाये 

मन को भाये न मन को भाये

भाये ना ये देश रे 

ना मनवा…

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Added by Devendra Pandey on July 2, 2013 at 11:00am — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल : रूबरू अब सलाम होता है… "राज"

वजन : 2122 1212 22

वक़्त किसका गुलाम होता है 

कब कहाँ किसके नाम होता है 

 

कल तलक जिससे था गिला तुमको 

आज किस्सा तमाम होता है 

 

खास है  जो  मुआमला अपना 

घर से निकला तो  आम होता है 

 

आज जग में सिया नहीं मिलती 

औ’…

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Added by rajesh kumari on July 2, 2013 at 11:00am — 48 Comments

छंदमुक्त

एक क्षण ,

मैंने उस फूल की पंखुड़ी को होठों से,
सहला भर दिया था 
सिहर गयी थी शाख,
जड़ की गहराईयों तक,
हिल उठी थी धरा,
भौंचक था आसमाँ  भी
उस पल 
कितना सहम गया था बागवाँ,
तब, ठिठक कर रुक गया था,
जिंदगी का कारवाँ,
लगा-
कहीं  कोई भूल तो नहीं हो गई,
उफ़!
मैंने…
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Added by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:30am — 18 Comments

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