आज़ादी के कई सालों बाद
उसकी तलाश ज़रूरी लगती है .
प्रजातन्त्र की भौतिकवादी
प्रवित्रियो में लिप्त आज़ादी अधूरी लगती है.
आज़ादी की तलाश उन बcचो के सपनों में है
जिनका बचपन कलम-किताब छोड़ होटलों में बिकता है
आज़ादी की तलाश किसानों के खेतों में है
जिनके आखों में पानी और गले मे मौत है
आज़ादी की तलाश वेरोज़गार युवीमन में है
जहाँ आखरी डिग्री की आस है
जिससे भूखा पेट भरा जा सके
आज़ादी की तलाश फूटपाथ पर सोए लोगों…
ContinuePosted on August 14, 2015 at 1:30am — 4 Comments
एक शहर
अत्यधिक आधुनिक टापुओ का है
जहाँ गरीवी बहुत बौनी दिखती है
हर गली में अमीरी गुलजार है
वहाँ गरीवो से अप्रत्यासित घ्रणा
अमीरों के अमीरी से बेशुमार प्यार है
वह "ग़ालिब "का शहर प्रेम से कितनी दूर हो गया है
हैवानियत ,दरिन्गीं ,लफ्फाजियो के लिए मशहूर हो गया है
इस शहर में रहते है भारत के कर्णधार
जिनका प्रिय पेशा है भ्रस्टाचार
ओ किसी भी काम में अपने को शिद्ध पुरुष मानते है
तोप ,प्याज ,अनाज से लेकर चारा तक खाने में माहिर है …
Posted on October 8, 2013 at 11:30pm — 13 Comments
संवेदन शील मन
बार-बार क्यों
डूबता उतराता है
संवेदना के समंदर में
हजारबार गोते खाता है
प्रश्नों का अम्बार है
आज तो मर्यादा का व्यापार है
वास्तव में संवेदनाहीन हो रहा संसार है
गरीवी ,लाचारी ,बेचारी ,बेरोजगारी और कुछ शब्द थे ,
जिनमें संवेदना का अधिकार व्याप्त था
संवेदनशील मन के लिए इन शब्दों का होना पर्याप्त था
किन्तु संवेदना की परिभाषा बदल गयी
जहाँ संवेदना थी ओ भाषा बदल गयी
आज अत्याचारी ,बलात्कारी, भ्रष्टाचारियों पर…
Posted on October 7, 2013 at 12:30am — 15 Comments
मै आदमी हूँ
सम्बेदंशील हूँ
मुझे कई आदमी
कहलाए जाने वालों
ने छला है I
छाछ फूककर
पीता हूँ हर-बार
क्यों की मेरा मुह
दिखावे के गर्म दूध से जला है I I
कल्पनाओ का समंदर
मेरे मन में भी है
कुछ पाने की चाह में
जीवन की राह में तुमसे मिला है I I I
मुझे रोकना नहीं
टोकना नहीं तुम
बढने दो मेरे पैर
ये हमारी दुश्मनी बदल कर
दोस्ती का सिलशिला है I I I I
मौलिक /अप्रकाशित
दिलीप कुमार तिवारी…
Posted on September 11, 2013 at 12:59am — 12 Comments
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