२१२२/१२१२/२२ (११२)
या ख़ुदा ऐसी ला-मकानी दे
अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.
.
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे.
.
यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.
.
सच मेरा कोई मानता ही नहीं
सच लगे ऐसी इक कहानी दे.
.
मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी
मेरी ग़ज़लों को थोडा पानी दे.
.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 31, 2015 at 9:30pm — 27 Comments
एकदम उसके ज़बान पर चढ़ गया था ये शब्द " काना ", हंसी मज़ाक में किसी को भी बोल देता था वो ।
आज भी वही हुआ जब बचपन का एक मित्र आया और उसके साथ मज़ाक चल रहा था । अचानक किसी बात पर उसने बोल दिया " क्या यार काने हो क्या , इतना भी नहीं दिखता "।
और फिर वो एकदम से खामोश हो गया , दरअसल उसका बचपन का दोस्त वास्तव में काना था । उसे उस शब्द की पीड़ा का एहसास हो गया था ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 31, 2015 at 6:46pm — 10 Comments
बेचारा ...बेबस... लाचार दिल
आँखों से कितनी दूर है
जो बस गए हैं सपने
उन्हें सच समझने को मजबूर है
आँखों की कहानी अपनी है
जो देखा बस वोही खीर पकनी है
छल फ़रेब की चाल रोज़ बदलनी है
क्या करे दिल की दुनियाँ का
वहाँ तो सिर्फ़ दिल की ही दाल गलनी है
हाँ ....बंद आंखें दिल को देखती हैं
मगर आँखों को
बंद आँखों से देखने पर भरोसा ही नहीं
क्यूंकि वो जानती हैं कि दिल मजबूर है
और सच्चाई सपनों से कितनी दूर है
यूँ हर किसी का दिल आँखों से दूर…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 31, 2015 at 2:36pm — 9 Comments
Added by babita choubey shakti on May 30, 2015 at 11:56am — 8 Comments
“सुनो, याद है न यह जगह!”
“जी याद है ,यहीं तो माँ जी की उनके इच्छा के अनुसार हमने अस्थि विसर्जन किया था !”
“और वो दुर्घटना ?”
“कैसे भूल सकती हूँ ,आज भी याद है वो दुर्घटना ,हम दोनों तो कार के नीचे दबे हुए थे ,और उसके बाद दोनों के ही एक –एक पैर काटकर किसी तरह डाक्टरों ने हमारी जान बचाई, और मां जी ने अपना सब रुपया –पैसा और जेवर हमारे इलाज में लगा दिया और उनकी दी हुई ये अंतिम निशानी ,ये बैसाखी हम दोनों का सहारा बन गयीं !”
“तुम्हें पता है मैं बार –बार यहाँ क्यों आता…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 30, 2015 at 1:32am — 3 Comments
"अरी भागवान ! तुम इस तरह क्यूँ देख रही हो बेटे को ?"
" देख रही हूँ कहीं लडखडाया तो हम झट से सहारा दे देंगे ."
"क्या वाकई तुम्हे लगता है कि उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत है ?"
" शायद नहीं , बड़ा हो गया है अब जीवन साथी भी मिल गयी है ."
"हमने अपना फ़र्ज़ पूरा किया ,अब उसे हमारे सहारे की जरूरत नहीं है .
,जीवन पथ पर चलना सीखा दिया है हमने "
"पर अब हम असक्त हो गएँ हैं ,उसके प्यार की बैसाखी की जरूरत अब हमें है ."
@मौलिक व् अप्रकाशित
Added by Rita Gupta on May 29, 2015 at 11:00pm — 16 Comments
आज फिर आँधियाँ उठीं दिल में
आज फिर नज़र , आप आये हैं !
खाक़ हो जाते ,ग़र नहीं मिलते
खत्म अब , गर्दिशों के साये हैं !
सोचते रहते जिनको शामो सहर,
ख्वाबों में भी , कब वो आये हैं !
खिल उठी है ये सारी कायनात,
मन ही मन जब वो मुस्कुराएं हैं!
शायद करेंगे ,आज वादे वफ़ा,
फिर से पहलू में आज आये हैं!
आज फिर आँधियाँ उठीं दिल में
आज फिर नज़र , आप आये हैं !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 29, 2015 at 10:30pm — 16 Comments
अटका मन भटका मन
आज मैं सुदूर विदेश में अपने कमरे में आँख बंद कर लेटी हूँ पर मन मुझसे निकल उड़ा जा रहा है .थामने की बड़ी कोशिश की इस बेकाबू घोड़े सदृश्य मन को, पर असफल अशक्त हो निढाल हो गयी .सात समुन्दर पार कर , बिन पंखों का ये बावरा मन जा पहुंचा उस गाँव जहाँ मेरा बचपन बीता था .ऊँचे पहाड़ी पर जा टिका जहाँ से बचपन का वो जहाँ अपने विस्तारित रूप में दृगों में समाहित होने लगा .बाबूजी संग इस पहाड़ी पर ,इसी पेड़ के नीचे कितने रविवार मनाये होंगे .मन की आँखों से सारा…
ContinueAdded by Rita Gupta on May 29, 2015 at 4:03pm — 15 Comments
हिंदी-साहित्य
साहित्य,
दर्पण सा मजबूर
इसका अपना कोई अक्स नहीं होता
रूप-रंग, वेष-भूषा, आकार-प्रकार
सब शून्यवत
अदृश्य आत्मा सा भाषा हीन
भावनाओं की आकृतियां अनुभव से सराबोर
आंसुओं में दर्द के बीज
संगठित मोतियों का वजूद
दफ्न हो जाते होंठो के कोर पर
संवेदनहीनता के मरूस्थल गढ़ते नई भाषा
साहित्य की आत्मा
पत्रकारिता की देह में ऐंठती मूॅछ
उगलती भाषाओं की जातियां, भ्रम....क्लीष्टतम रस
क्षेत्रीयता के कलश हवाओं में लटके
मुंह…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 29, 2015 at 12:22pm — 13 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 29, 2015 at 10:15am — 10 Comments
" ज़रा इसको सिल कर बढ़िया पॉलिश कर देना "।
उसने सर हिला कर जूता ले लिया और साहब ने बड़े अनमने मन से वहाँ रखी टूटी चप्पल पैर में डाल ली ।
" लीजिये साहब , जूता ठीक हो गया ", पर उन्होंने जैसे ही पैर निकाला , मोज़ा चप्पल में लगी कील में फंस गया।
" कैसी चप्पल रखते हो तुम लोग ", नाराज़गी दिखाते हुए उन्होंने उसके बताये पैसों का आधा दिया और चल दिए।
वो अपनी टूटी चप्पल की कील दुरुस्त करते हुए सोच रहा था कि छेद मोज़े में हुआ था या नीयत में।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 29, 2015 at 2:09am — 18 Comments
Added by Samar kabeer on May 28, 2015 at 11:00pm — 24 Comments
मात्रिक बहर 22/22/22/22/22/22/22/2
क्या क्या सपनें बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में
क़िस्मत ने कुछ और लिखा था लेकिन अपने हाथों में.
.
कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था
मोटे मोटे आँसू थे उन सच्ची झूठी मातों में.
.
कितने प्यारे दिन थे जब हम खोए खोए रहते थे
लड़ते भिड़ते प्यार जताते खट्टी मीठी बातों में.
.
एक ये मौसम, ख़ुश्क हवा ने दिल में डेरा डाला है
एक वो ऋत थी, साथ तुम्हारे भीगे थे बरसातों में.
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एक समय तो…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 28, 2015 at 10:00pm — 20 Comments
२२२ /२२२ /२२
सच का ओज भरम क्या जाने
रौशनी मेरी तम क्या जाने
*
अँधियारे को झुकने वाले
इक दीये का दम क्या जाने
*
दुधिया रंग नहाने वाले
लालटेन का गम क्या जाने
*
मटई प्याल की सौंधी बातें मटई/मटिया (भोजपुरी)= मिट्टी
पालथीन के बम क्या जाने
*
हमको सिर्फ साकी से मतलब…
Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 28, 2015 at 9:30pm — 28 Comments
२१२२ १२१२ २२
हुस्न वाले सलाम करते हैं
क़त्ल यूं ही तमाम करते हैं
वो मसीहा चमन को लूट कहे
काम ये लोग आम करते हैं
आग दिल में लगाते गुल दिन में
रात तन्हाई नाम करते हैं
काम मेरा हुनर जो कर न सका
मैकदे के ये जाम करते हैं
जाम छूते मेरे हंगामा क्यूँ
शेख तो सुब्हो-शाम करते हैं
कैसे रिश्तों में वो तपिश मिलती
रिश्ते जब तय पयाम करते हैं
उनको बुलबुल…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on May 28, 2015 at 5:06pm — 19 Comments
Added by shree suneel on May 28, 2015 at 3:06pm — 7 Comments
एक कविता सुनाता हूँ –
“पीडाओं के आकाश से
चरमराती टहनियां
मरुस्थल की आकाश गंगा
की खोज में जाती हैं
धुर दक्षिण में अंटार्कटिक तक
जहाँ जंगलों में तोते सुनते हैं
भूकंप की आहट
और चमगादड़ सूरज को गोद में ले
पेड़ से उछलते है
खेलते है साक्सर
और पाताल की नीहरिकायें
जार –जार रोती हैं
मानो रवीन्द्र संगीत का
सारा भार ढोती हैं
उनके ही कन्धों पर
युग का…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 28, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
जीवन.....
हरी पत्तियो से ढके
और फलों से लदे
पंछियोंं के घने बसेरे
आस-पास वृहद सागर सा लहराता वन,
आल्हादित हैं पवन-बहारें
सॉझ-सवेरे झंकृत होते
पंछियो के कलरव स्वर
नदियों की कल-कल,
आते-जाते नट कारवॉ
उड़ते गुबार, मद्धिम होती रोशनी, आँख मींचते बच्चे
तम्बू में घुस कर खोजते, दो वक्त की रोटी...
पेट की आग का धुआँं, करता गुबार
रूॅधी सांसों के कुहराम
आधी रोटी के लिए करते द्वन्द
तलवारें चमक जाती, बिजली सी
धरा…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 27, 2015 at 10:30pm — 14 Comments
मौत देना मौत का अहसास मत देना,
जो छला जाए कभी विश्वास मत देना ।
पंख दे पाओ नहीं गर तो वही अच्छा
सामने मेरे खुला आकाश मत देना।
दश्त देना, धूप देना , गरमियाँ देना
ऐसे में लेकिन खुदाया प्यास मत देना ।
है हमे मंजूर अंधेरा उम्र भर का
जुगनुओं से ले मुझे प्रकाश मत देना ।
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नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on May 27, 2015 at 10:28pm — 11 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 27, 2015 at 9:30pm — 7 Comments
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