एकदम उसके ज़बान पर चढ़ गया था ये शब्द " काना ", हंसी मज़ाक में किसी को भी बोल देता था वो ।
आज भी वही हुआ जब बचपन का एक मित्र आया और उसके साथ मज़ाक चल रहा था । अचानक किसी बात पर उसने बोल दिया " क्या यार काने हो क्या , इतना भी नहीं दिखता "।
और फिर वो एकदम से खामोश हो गया , दरअसल उसका बचपन का दोस्त वास्तव में काना था । उसे उस शब्द की पीड़ा का एहसास हो गया था ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी , सही कहा आपने .
आदरणीय विनय जी,
किसी की कमी विशेष कर दैविक कमी को इंगित करते हुये हम ये भूल जाते हैं कि इससे वो व्यक्ति भी कितना आहत होता होगा. सुन्दर कथा.
सादर.
बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी.
सहज उक्तियों के परिणाम भी कितने मर्मभेदी हुआ करते हैं, लघुकथा इसे उजागर करती है.
बढिया .. हार्दिक शुभकामनाएँ.
बहुत बहुत आभार आदरणीय मोहन सेठी 'इंतज़ार' जी..
किसी और की पीड़ा का एहसास हो जाये बस यही ज़रूरी है .....सटीक ...सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी, अनजाने में ऐसे कई शब्द हम बोल जाते हैं जिनकी वज़ह से औरों को क्या तक़लीफ़ हो सकती है हम सोच भी नहीं पाते ..
कभी कभी हम ,,अपने मस्ती के लिए कुछ ऐसे शब्द निकालते हैं ,जो दूसरों के लिए कितने कष्टमय होते हैं ,,,आपकी रचना उन्ही पहलुओं पर प्रकाश डालती है ,,,सादर बधाई आपको |
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, आप की नज़र रचना पर पड़ जाती है तो दिल को तसल्ली मिल जाती है .
अच्छी प्रस्तुति हुई है . सादर .
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