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May 2016 Blog Posts (130)


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : व्यवस्था (गणेश जी बागी)

अतुकांत कविता : व्यवस्था

 

गर्मी से तपती धरती

चहुँ ओर मचा हाहाकार

बादल को दया आयी

चारो तरफ नज़र दौड़ाई

जाति देखी, धर्म देखा

सगे-सम्बन्धी, पैरवीकार देखा  

खुद को सिमित करके  

खूब बरसा, जमकर बरसा

 

कही बाढ़ तो कही सूखा

पुनः मचा…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 7, 2016 at 10:30am — 9 Comments

ज़िन्दगी से जो मिला, हमको गवारा हो गया (ग़ज़ल)

2122 2122 2122 212



ज़िन्दगी से जो मिला हमको गवारा हो गया

कुछ गिला-शिकवा किये बिन ही गुज़ारा हो गया



टूटकर ख़ुद पूर्ण करता है जो औरों की मुराद

मेह्रबानी से किसी की मैं वो तारा हो गया



सत्य-अहिंसा साथ लेकर हम भटकते ही रहे

फ़ोटो से बापू की, उसका काम सारा हो गया



कल तलक जो मेरे सीने में धड़कता था,वो दिल

आज ये ऐलान करता हूँ, तुम्हारा हो गया



क़ैद कर दो प्रेम को इतिहास के पन्नों में अब

आजकल के प्रेमियों को 'काम' प्यारा हो… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on May 7, 2016 at 6:44am — 6 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
रुनझुन फिर पायल होने दो.... गीत//डॉ प्राची

बरसो तुम जीभर मरुथल में, अब खुद को बादल होने दो।

अपनी एक छुअन से मेरा पोर-पोर संदल होने दो।



जब खुशियों की सेज बिछी थी

तब आँखों में स्वप्न भिन्न थे,

रूठे-रूठे से हम थे या-

सौभागों के पृष्ठ खिन्न थे,

वक्र चाल हर तिरछे ग्रह की अब बिल्कुल निष्फल होने दो। अपनी एक....



अपनी-अपनी ज़िद को पकड़े

तन्हाई से खूब लड़े हैं,

लहरों की आवाजाही बिन

तट दोनों खामोश पड़े हैं,

पानी में कुछ तो हलचल हो, लहरें अब चंचल होने दो। अपनी एक....…



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Added by Dr.Prachi Singh on May 7, 2016 at 5:30am — 4 Comments

पैसा:बैजनाथ शर्मा ‘मिंटू’

अरकान – 1222 1222 1222 1222

 

कभी चाहत कभी हसरत कभी श्रृंगार है पैसा 

कभी है फूल तो देखो कभी तलवार है पैसा |

 

जुदा माँ-बाप से कर दे लड़ाए भाई-भाई को,

बहाए खून का दरिया तो फिर बेकार है पैसा|

 

खुदा का शुक्र है घर में बरसती है सदा खुशियाँ, 

कि रहते साथ सब मिलकर मेरा परिवार है पैसा|

 

इसे पाने की खातिर ही जहां में खोया है सब कुछ

मेरे आपस के सम्बन्धों में ये दीवार है पैसा…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on May 6, 2016 at 10:30pm — 3 Comments

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव ...

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव ...

दूर दूर तक

काली सड़कें

न पीपल न छाँव

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

नीला अम्बर

पड़ गया काला

अब धरा पे फैला धुंआ

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

कंक्ट्रीट के

जंगल फैले

अब दिखता नहीं कुआं

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

हल-बैल का

अब युग बीता

ट्रैक्टर हुआ जवां

अखियाँ ढूंढें अपना गाँव

सांझ के खेले

ढपली मेले

खो गए जाने कहाँ

अखियाँ ढूंढें अपना…

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Added by Sushil Sarna on May 6, 2016 at 6:01pm — 6 Comments

ग़ज़ल-नूर-अश्क आँखों से फिर बहा जाये,

२१२२/१२१२/२२ (११२)

.

अश्क आँखों से फिर बहा जाये,

अपना जाये, किसी का क्या जाये.

.

तुम अगर चश्म-ए-तर में आ जाओ,

झील में चाँद झिलमिला जाये.
 

.

ढ़लती उम्रों के मोजज़े हैं मियाँ

इक बुझा जाए, इक जला जाये.

.

याद माज़ी को कर के जी लूँगा, 

फिर जहाँ तक ये सिलसिला जाये.

.

ज़ह’न कहता है, कर ले सब्र ज़रा,

और दिल है कि बस…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 7:00am — 20 Comments

दुर्मिल सवैया

बन प्रेम-प्रसून सुवासित हो,

उर में सबके नित वास करो।



मद-लोभ-अनीति-अधर्म तजो,

धर धर्म-ध्वजा नर-त्रास हरो।।



सत हेतु करो विषपान सदा,

नहि किंचित हे! मनुपुत्र! डरो।



सदभाव-सुकर्म-सुजीवन का,

जग में प्रतिमान नवीन धरो।।1।।



पथ में अति काल-बवंडर से,

नहि किंचित कंत! कदापि डरो।



करके दृढ़-निश्चय साहस से,

हिय धीर धरे नित यत्न करो।।



हर रोक-रुकावट-विघ्न मिटे,

जब सिंह समान हुँकार… Continue

Added by रामबली गुप्ता on May 6, 2016 at 4:30am — 5 Comments

गीत

स्नेह का दीप चाहे विजन में जले किन्तु जलता रहे यह् बढे ना  कभी

जो हृदय शून्य था मृत्तिका पात्र सा

नेह से आह ! किसने तरल कर दिया ?

जल उठी कामना की स्वतः वर्तिका

शिव ने कंठस्थ फिर से गरल कर लिया

अश्रु के फूल हों नैन-थाली सजे स्वप्न के देवता पर चढ़े ना  कभी   

आ बसी मूर्ति जब इस हृदय-कोश में

पूत-पावन वपुष यह उसी क्षण हुआ

रच गया एक मंदिर मुखर प्रेम का

साधना से विहित दिव्य प्रांगण हुआ

फूल ही सर्वथा एक शृंगार हो,…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 5, 2016 at 9:39pm — 2 Comments

जख्म दे के हवा करे कोई

2122  -  1212  -  22  

जख्म दे के हवा करे कोई

इस तरह भी वफ़ा करे कोई

 

आप तो मेरी जान हो जानम

देख कर ये जला करे कोई

 

प्यार में शर्त तुम लगाते हो

सोच कर के दगा करे कोई

 

दूर मंजिल तो रास्ता केसा

रात औ दिन चला करे कोई

 

वो बना है मरीज इस खातिर 

पास उस के रहा करे कोई

 

हर कदम झूठ फ़िक्र धोखा है

अब कहाँ तक सहा करे कोई

.

मुनीश “तन्हा” नादौन…

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Added by munish tanha on May 5, 2016 at 9:00pm — 2 Comments

गीत

स्नेह का दीप चाहे विजन में जले किन्तु जलता रहे यह् बढे न कभी

जो हृदय शून्य था मृत्तिका पात्र सा

नेह से आह ! किसने तरल कर दिया ?

जल उठी कामना की स्वतः वर्तिका

शिव ने कंठस्थ फिर से गरल कर लिया

अश्रु के फूल हों नैन-थाली सजे स्वप्न के देवता पर चढ़े न कभी   

आ बसी मूर्ति जब इस हृदय-कोश में

पूत-पावन वपुष यह उसी क्षण हुआ

रच गया एक मंदिर मुखर प्रेम का

साधना से विहित दिव्य प्रांगण हुआ

फूल ही सर्वथा एक शृंगार हो,…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 5, 2016 at 8:45pm — 1 Comment

ख़्वाबों के पैराहन से ....

ख़्वाबों के पैराहन से ....

कभी कभी ज़िंदगी

अपने फैसलों पर

खुद पशेमाँ हो जाती है

मुहब्बत के हसीं मंज़र

ग़मों की गर्द में छुप जाते हैं

थरथारते लबों पे

लफ्ज़ कसमसाते हैं

तल्खियां हर कदम राहों में

यादों के नश्तर चुभोती हैं

खबर ही नहीं होती

मौसम पलकों पे ही बदल जाते हैं

चार कदम के फासले

मीलों में बदल जाते हैं

हमदर्दियों के बोल

लावों में तब्दील हो जाते हैं

सांसें अजनबी बन जाती हैं

कोई अपना

कब चुपके से…

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Added by Sushil Sarna on May 5, 2016 at 8:27pm — 4 Comments

यदि ये बर्फ़ पिघलती है-ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2



राजनीति से जिन लोगों की, रोज़ी रोटी चलती है।

सच का करें विरोध अगर वो, तो उनकी क्या गलती है।।

किन्तु लेखनी वाले लोगों, से मेरा बस प्रश्न यही।

उनकी नैतिकता क्यों झूठे रंगों में हाँ ढ़लती है।।

वर्ग विभाजन लोकतंत्र में तो बस सत्ता की कुंजी।

किन्तु नीति यह सृजन क्षेत्र में आख़िर काहें मिलती है।।

यद्यपि आज़ादी से लेकर तुझसे नेता कई लड़े।

फिर भी अरे गरीबी तेरी चूल न काहें हिलती है।।

सोचो नफ़रत…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 4, 2016 at 11:51pm — 9 Comments

तब मन मे बैराग्य हुआ

जब मेरे ही पूजित पाषाण ने

मेरा उपहास किया,

तब मन मे बैराग्य हुआ

 

जब पुल्लवित बसंत मे,

फ़ूलो ने भवरो का हास किया

तब मन मे बैराग्य हुआ

 …

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Added by arunendra mishra on May 4, 2016 at 11:05pm — 6 Comments

ग़ज़ल -- मेरे आँगन का बूढ़ा शजर.... ( दिनेश कुमार )

212--212--212----212--212--212



अब्र का एक टुकड़ा है वो ......और मैं हूँ बशर धूप का

दिल के सहरा में खोजूं उसे, मैं क़फ़न बाँध कर धूप का



ज़िन्दगी की लिए जुस्तजू ..एक मुद्दत से बेघर हूँ मैं,

गाम दर गाम तन्हाइयाँ....हम-सफ़र है शजर धूप का



बर्फ़ बेशक जमी है बहुत, ख़त्म लेकिन मरासिम नहीं

मैं करुँगा जो करना पड़े... इन्तिज़ार उम्र भर धूप का



नाख़ुदा है मिरा हौसला, और पतवार........ बाज़ू मिरे

अपने साहिल पे पहुँचूँगा मैं, पार करके भँवर धूप… Continue

Added by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:19pm — 9 Comments

ग़ज़ल -- मैं कमाता हूँ बड़ी मेहनत से। ( दिनेश कुमार )

2122--1122--22



भाई माँ बाप वफ़ा है पैसा

दौरे-हाज़िर का ख़ुदा है पैसा



हाथ का मैल ही मत समझो इसे

जिस्म की एक क़बा है पैसा



जा के बाज़ार में देखो तो सही

हर तरफ जल्वा-नुमा है पैसा



जिसको हासिल है वही इतराए

खूबसूरत सा नशा है पैसा



यूँ दुआ अपनी जगह काम आए

अस्पतालों में दवा है पैसा



वक़्त से पहले या किस्मत से अधिक

आज तक किसको मिला है पैसा



मैं कमाता हूँ बड़ी मेहनत से

मुझको मालूम है क्या है… Continue

Added by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:11pm — 7 Comments

ग़ज़ल -नूर- नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)

.

नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,

कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.

.

किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,

ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.

.

अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,

अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.

.

सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,

सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.

.

परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,

उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2016 at 5:42pm — 21 Comments

सांस उनको देख कर के है इधर चलने लगी

2122 - 2122 - 2122 - 212 

सांस उनको देख कर के है इधर चलने लगी

कब मिले वो रोज मुझको आरजू रहने  लगी

.

फ़िक्र में हर दम ये दिल डूबा मुझे अब है लगे

उनको अपना है बनाना सोच ये जगने लगी

.

प्यार की गलियाँ बड़ी बदनाम दुनिया में मगर

क्या करें अपनी तबियत जो अगर सजने लगी

.

आप तो हैं हुस्न की तस्वीर जो अनमोल है

ये करिश्मा देख कर दुनिया भी अब जलने लगी

.

ख़ुद खुदा भी सोच के अब है परेशां हो रहा

के बनाकर…

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Added by munish tanha on May 4, 2016 at 1:00pm — 3 Comments

तन्हा सफ़र ....

तन्हा सफ़र ....

२ २ १ २ / २ १ २ २ /२ २ २ २ / २ १ २

तन्हा सफर और तेरी परछाईयाँ साथ हैं

तुमसे मिली संग मेरे तन्हाईयाँ साथ हैं !!१ !!//

अब तो हमें ज़िंदगी से नफरत सी हो ने लगी

यादें तुम्हारी और वही रुसवाईयाँ साथ हैं !!२!!//



भीगी हुई चांदनी में वो शोला सा इक बदन//

भीगे बदन की ज़हन में अँगड़ाइयाँ साथ हैं !!३!!//

लगने लगे मौसम सभी अब बेगाने से हमें

यादें वही और तेरी रुसवाईयाँ साथ हैं !!४!!//

लगने लगा है अब *हरीफ़…

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Added by Sushil Sarna on May 3, 2016 at 5:49pm — 6 Comments

दिहाडी और रोटी

तपिश को कौन समझेगा
जलते शहर की
कुर्सी से जो मतलब ठहरा
विरोध प्रदर्शन धरने हडताल
दिहाडी को निगल गए
नहीं थमेंगे
गरीब को रोटी नहीं मिलेगी।
पहरेदार
सब कठपुतलियां हैं
सफेदपोशों की।
मजबूर
घोडे को लगाम जो लगी है
गरीब ने कहा
चलो गरीबों चलो कंगालो
मरने वालों को लाखों मिलते हैं
मरने चलें
दो-चार दिन का सूतक सही
दिहाडी-रोटी नहीं तो लाखों सही
पीछे वालों की जिंदगी
आराम से गुजरेगी।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on May 3, 2016 at 5:16pm — 41 Comments

लघुकथा - केस

कार से टकरा कर लहूलुहान हुए बासाहब से इंस्पेक्टर ने दोबारा पूछा , “ क्या सोचा है ? कार सुधराई के पैसा देना है या नहीं ?”

“साहब ! बहुत दर्द हो रहा है. अस्पताल ले चलिए.” वह घुटने संहाल कर बोला तो इंस्पेक्टर ने डपट दिया,“अबे साले ! मैं जो पूछ रहा हूँ, उस का जवाब दे ?” कहते हुए जमीन पर लट्ठ दे मारा.

“साहब ! मेरा जुर्म क्या है ? मैं तो रोड़ किनारे बैठा था. गाड़ी तो लड़की चला रही थी. उसी ने मुझे टक्कर मारी है. साहब मुझे छोड़ दीजिए. ” वह हाथ जोड़ते हुए धीरे से विनय करने लगा.

“जानता…

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Added by Omprakash Kshatriya on May 3, 2016 at 12:30pm — 14 Comments

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