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May 2015 Blog Posts (226)

बड़प्पन--

" मैंने तो बिना पैसे दिए ही शॉपिंग कर ली | वो बाजार में एक छोटी सी किराने की दुकान है न , आज वहां चली गयी थी | सामान लेने के बाद उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया, बोला कि वो आपको जानता है और इसलिए पैसे नहीं लेगा "|
वो सोच में पड़ गया , अपने गाँव का छोटी जात का दुकानदार , जिसकी बेटी की शादी में १०१ रुपये देकर उसने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी |
आज वो अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था |
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 22, 2015 at 9:48pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत - वार्तायें कैसी हों ( गिरिराज भंडारी )

वार्तायें ,

किसी सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश में

अपने अपने वैचारिक खूँटे से बंधे बंधे क्या सँभव है ?

आँतरिक वैचारिक कठोरता

क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ?

सोचने जैसी बात है

 

वार्तायें अपने अपने सच को एन केन प्रकारेण स्थापित करने के लिये नहीं होतीं

न ही लोट लोट के किसी भी बिन्दु को स्वीकार कर लेने लिये ही होती हैं

 

वार्तायें होतीं है

अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on May 22, 2015 at 4:36pm — 6 Comments

टपकती टोंटियाँ (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

चटक धूप. आसमान में उड़ते-उड़ते गला सूख गया था. पानी की एक बूँद कहीं नजर नहीं आ रही थी. पानी या तो बोतलों में बन्द था या  वहाँ स्वीमिंग पूल में था , लेकिन स्वीमिंग पूल के ऊपर लगी जाली के कारण पाना सम्भव नहीं था.

इस प्रचंड गर्मी में सजे-धजे साफ़-सूथरे शहर में प्यास से व्याकुल चिडियों को खसर-खसर करते वो चापाकल, उनके किनारे की खुली नालियाँ, लगातार टपकती म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की टोटियों की बहुत याद आ रहीं थी.

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on May 22, 2015 at 3:00pm — 14 Comments

आसमां ____मनोज कुमार अहसास

जैसी ज़मीन हो गयी वैसा ही वो हुआ

दूरी से नहीं बेरुखी से आसमां हुआ



पत्थर का शहर हाथ में खंज़र लिए हुए

रोता था मेरी याद में सर नोचता हुआ



ऐसी भी भरी भीड़ न देखी कभी दिलबर

एक ज़िन्दगी में दर्द का मेला लगा हुआ



वैसे तो तुझे भूल भी जाऊ मै जिंदगी

लेकिन ये तेरी याद का जीवन बना हुआ



उस पार का भी गम मेरी आँखों में है मगर

लेकिन ये कफ़न वक़्तका मुझपर पड़ा हुआ



जाता नहीं है आँख से मंज़र कभी भी वो

मै ख़त जला रहा था उसी का लिखा… Continue

Added by मनोज अहसास on May 22, 2015 at 5:30am — 4 Comments

ग्रीष्म प्रभाव

चकोर सवैया (7 भगण +गुरु लघु )          23 वर्ण

 

चाबुक खा कर भी न चला अरुझाय गया सब घोटक साज 

अश्व अड़ा पथ बीच खड़ा न मुड़ा न टरा अटका बिन काज

सोच रहा  मन में असवार  यहाँ इसमे कछु है  अब राज

बेदम है यह ग्रीष्म प्रभाव चले जब सद्य मिले जल आज 

मत्तगयन्द (मालती) सवैया (7 भगण + 2 गुरु)   23 वर्ण

 

बीत बसंत गयो जब से  सखि तेज प्रभाकर ने हठि…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 9:17pm — 5 Comments

रोज रोज बातें बदल लेती तू(कविता)

रोज-रोज बातें बदल लेती तू,

रोज-रोज घातें बदल लेती तू।1

मंजिल मुझे तो मिली ही नहीं,

रोज-रोज नाते बदल लेती तू।2

मैं बातों से तेरी मचलता कभी,

रोज-रोज अपने मचल लेती तू।3

शब्दों से तेरे बुनता मैं गीत कोई,

रोज-रोज मेरी गजल लेती तू।4

भंगिमा पे तुम्हारी भटकूँ कहाँ?

रोज-रोज रुख अचल लेती तू।5

चलता चला यूँ तो मैं ही अकेला,

रोज-रोज रूकी,न चल लेती तू।6

कहे बिन दिन तू ले लेती है मेरे,

रोज-रोज रातें बेकल लेती तू।7

तुम्हारी हँसी में मैं ढलता… Continue

Added by Manan Kumar singh on May 21, 2015 at 8:38pm — 2 Comments

पराई इज्जत (लघुकथा)

"जीजी, सुमित अभी तक घर नहीं आया है?"
"अरे, घुमने दो ना बेटे को। कौन सा उसकी इज्जत लुटने का खतरा है जो उसकी इतनी निगरानी रखेंगे।"
सुबह खबर थी कि सुमित गाँव की ही लड़की को लेकर भाग गया है।
"अरे!! अरे!!! हमको पकड़कर कहाँ ले जा रहे हो। हमने आखिर किया क्या है?"
"इन सभी औरतों को बिना कपड़ों के पूरे गाँव में घुमाओ। इज्जत केवल हमारी ही नहीं लुटेगी।"

मौलिक और अप्रकाशित

Added by विनोद खनगवाल on May 21, 2015 at 1:12pm — 4 Comments

ज़रूरत--

आज नयी बहू ने नौकर को बड़ी बहू के कमरे से रात में निकलते देख लिया । रात आँखों आँखों में बीत गयी , किससे क्या पूछे | अगली सुबह बड़ी बहू ने उसके चेहरे को पढ़ लिया और उसे अपने कमरे में बुलाया ।
" मेरे चरित्र के बारे में कुछ धारणा बनाने से पहले मेरे पति को भी जान लो , कई कई महीने घर नहीं आता है और वहाँ क्या क्या करता है , ये सबको पता है "।
छोटी बहू स्तब्ध , कुछ कहे उससे पहले ही वो फिर बोली " और हाँ , जब शरीर को ज़रूरत होती है तो सही गलत कुछ नहीं होता "।
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 21, 2015 at 12:28am — 6 Comments

भूकम्प...

भूकम्प....

यादों के शहर में

मुॅह बिचकाती सड़कें

दरक कर उलाहना देतीं ....दीवारें खिसियाती

जमीं पर भटकते अबोध सितारे

औंधें मुॅह धूल चाटतीं ऐतिहासिक धरोहरें

झुके वृक्ष कुछ और झुक कर पूछना चाहते....कैसे हो?

भूकम्प के झटकों से टेढ़ा हुआ चॉद

चॉदनी धू-धूसरित....

मलबे के नीचे दबे विदीर्ण स्वर अतिशांत

प्रकृति भी सहम उठती।

अडिग अट्टालिकाएं चकनाचूर

बिछड़े आँखों के नूर

भाग्य स्वयं को कोसते.....तो, संवेदनाएं मूक।

मैदानों…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 20, 2015 at 8:00pm — 8 Comments

नतीज़ा_____मनोज कुमार अहसास

तेरे दामन से लगाकर मै भरी आँखों को

ज़िन्दगी भर की तसल्ली का नतीजा चाहूँ



रौशनी तेरी ज़िन्दगी में ठहर जाये अगर

कौन सी चीज़ मैं मालिक से हमेशा चाहूँ



जो सुबह मुझको मिली है मै करू क्या इसका

बिन तेरे जीत ज़माने की भला क्या चाहूँ



हिज्रकी रात में भी आँख न जल जाये अगर

और मै चुपचाप तेरे गम में उबलना चाहूँ



हो सके तो मेरे ही दिल को बदल दे मालिक

अपने हिस्से से बड़ा और मैं कितना चाहूँ



रात का ज़िक्र ना कर मेरे हसीं दिल तनहा

मैं… Continue

Added by मनोज अहसास on May 20, 2015 at 4:48pm — 3 Comments

अदालत ने मेरा क़ातिल मुझे ठहरा दिया साहिब

1222 1222 1222 1222

---------------------------------------

मुहब्बत है कभी जिसने मुझे कहला दिया साहिब

मगर फिर घाव उसने ही बहुत गहरा दिया साहिब 



जरूरत ही नहीं होती मुहब्बत में व़फाओं की 

के बच्चों की तरह उसने मुझे बहला दिया साहिब



सड़क पर भूख से बेचैन माँ आँसू बहाती है

निवाला बेटे को जिसने ,कभी पहला दिया साहिब

 

मुहब्बत मिट नहीं पायी दीवारों में चुनी फिर भी

रक़ीबों ने जमाने से बहुत पहरा दिया साहिब



बहुत छेड़ा है दुनिया ने खुदा की पाक…

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Added by umesh katara on May 20, 2015 at 4:47pm — 10 Comments

कितना सुहाना होगा ………..

कितना सुहाना होगा ………..



अपने अपने दंभों को समेटे

हम इक दूसरे की तरफ 

पीठ करके चल दिए 

बिना इसका अनुमान लगाये कि

मुंह मोड़ के हम

उन स्नेहिल पलों का 

अनजाने में क़त्ल कर रहे हैं 

जो हमने

तारों की छाँव में

चांदनी की बाहों में 

नशीली निगाहों में 

इक दूसरे के कन्धों पर सिर रख कर

इक दूसरे की उँगलियों में उंगलियाँ डालकर

इक दूसरे के केशों से खेलते हुए 

निशा में अपने अस्तित्व को 

इक दूसरे में विलीन करके संजोये थे 

और हाँ…

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Added by Sushil Sarna on May 20, 2015 at 2:17pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इस्लाही ग़ज़ल -- मिथिलेश वामनकर

1222---1222---1222---1222

 

करो मत फ़िक्र दुनिया की, जो होता है वो होने दो

जिन्हें कांटें चुभोना है, उन्हें कांटें चुभोने दो

 

हमारी तिश्नगी नादिम, अजी ये चाहती…

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Added by मिथिलेश वामनकर on May 20, 2015 at 10:30am — 29 Comments

सलामती की दुआ(कविता)

वे मेरी सलामती की दुआ करते हैं
दूर रहते भी मेरे पास हुआ करते हैं
आ जाते पास मेरे खिड़की के रस्ते
बातें शुरू हों कि खत्म मुआ करते हैं
कुछ तो सिफत है मेरे दोस्त में कि
कुछ कहते मेरा दिल छुआ करते हैं
गोधूलि की ललाई रौनक ए सहर हो
अब हम हयात- ए -जुआ करते हैं।
बड़े बेदम हो जाते इस आवाजाही से,
गुल-ए-ख्वाब जब जुदा हुआ करते हैं।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

Added by Manan Kumar singh on May 20, 2015 at 6:59am — 4 Comments

अस्मिता-बोध (कहानी ) -डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

      प्रथम श्रेणी के रिजर्व कोच में अपनी नव परिणीता पत्नी को लाल जोड़े में लिपटी देखकर भी मैं उस एकांत में बहुत खुश नहीं था I नए जीवन की वह काली सर्द रात जो उस रेलवे कम्पार्टमेंट में थोड़ी देर के लिए मानो ठहर सी गयी थी I मेरे लिए नया सुख, नयी अनुभूति और नया रोमांच लेकर आयी थी I फिर भी मैं  उदास, मौन और गंभीर था I ट्रेन की गति के साथ ही सीट के कोने में बैठी वह सहमी-सिकुड़ी, पतली किन्तु स्वस्थ काया धीरे-धीरे हिल रही थी I मैंने एक उचटती निगाह उसकी ओर डाली फिर अपनी वी आई पी अटैची के उस…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 6:39pm — 13 Comments

सम्बल (लघु कथा) // शुभ्रांशु पाण्डेय

भूख और थकावट से चूर दोनों असहाय भाई-बहन एक-दूसरे से लिपट कर लेट गये.

आज सुबह के भूकम्प में अपने मां-पापा को खो देने के बाद से ये छः वर्षीय भाई ही तो उसका सम्बल था.

दो वर्ष छोटी बहन को ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई के सीने पर सर रख देने से ही उसकी सारी समस्याओं का निदान हो गया हो.

अचानक खयाल आया, उसके भाई के लिये आखिर सम्बल कौन है ?

उसके नन्हे हाथ अनायास भाई के गालों पर फैल गये आँसुओं को साफ़ कर उसके धूल भरे बालों को सहलाने लगे. 

==================

मौलिक…

Continue

Added by Shubhranshu Pandey on May 19, 2015 at 5:18pm — 19 Comments

जब खुशी हो पास आये ग़म पड़े दिल तोड़ जाये |

२१२२ २१२२ २१२२ २१२२ - रमल मुसम्मन सालिम
ज़िंदगी     कैसे चले   जब साथ कोई छोड़ जाये | 
जब खुशी हो पास आये ग़म पड़े दिल तोड़ जाये | 
दूर का जब हो  सफर तब  आसरा  सब  ढूढ़ते हैं…
Continue

Added by Shyam Narain Verma on May 19, 2015 at 3:47pm — 10 Comments

बुला लेते(कविता)

नूरे-नजर से देखिये,फिर नूर आ जाता,
तबीयत से बुला लें,रब हुजूर आ जाता।
रहे आपको बुलाते अरसा गुजर गया,
आप जो बुलाते, बंदा जरूर आ जाता।
ढका रहा चाँद घटाओं में,हटाते गेशू,
पल भर ही,नजर भरपूर आ जाता।
कैसी झिझक यह? देख लेते एक बार,
आपकी नजर बंदा कम दूर आ जाता।
चिलमन-चादर-ए-बेरुखी,ख्वाहिशे-जहाँ,
हटाते,फिजा-ए-प्यार का शुरुर आ जाता।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

Added by Manan Kumar singh on May 19, 2015 at 7:17am — 7 Comments

अपने अपने फ़र्ज़--

" पापा , आपने अगर मुझे बेटी माना है तो मुझे इस अधिकार से कभी वंचित मत कीजियेगा ", विदा होते समय वो उनसे लिपट कर रो पड़ी थी और वहाँ मौज़ूद लोगों की आँखें नम हो गयी थीं ।

वो अपने एकलौते पुत्र को खो बैठे थे जिसकी नयी नयी शादी हुई थी , और हर उस आवाज़ के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे जो उनकी बहू को इस हादसे के लिए दोषी ठहरा रहे थे । फिर उन्होंने बहू को धीरे धीरे सँभाला और उसे अपनी बेटी का दर्ज़ा दे दिया । उसके अपने माता पिता भी संतुष्ट थे कि वो अब उस घर की बेटी बन गयी थी ।

आजीवन उनका…

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Added by विनय कुमार on May 19, 2015 at 2:47am — 14 Comments

विकासवाद का चरित्र---

विकासवाद का चरित्र

सड़क, गली, कूचों व मैदानों में

उन्मादी संक्रमण मस्ती करते

विकल, प्राण पखेरू

समूहों में फड़फडाते- गिड़गिडाते

गगन, हवा, दीवारों में सिर मार कर डूब जाते

सागर, सरोवर, ताल, नदी, झीलों में

बजबजाता विकासवाद

अशिष्ट पन्नियों से ।

दलदल में कमलदल, दलगत उन्मुक्त पर

स्थिर, मूक, भावहीन संज्ञाएं

क्रियाशील भौंरे सब हवा हो गए

गुम गयीं - तितलियॉं

सौन्दर्य निगलती- वादियॉं

दिशाएं- दिशाहाीन, पूर्णत: शुष्क पछुवा पर निर्भर…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 18, 2015 at 9:08pm — 16 Comments

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