" मैंने तो बिना पैसे दिए ही शॉपिंग कर ली | वो बाजार में एक छोटी सी किराने की दुकान है न , आज वहां चली गयी थी | सामान लेने के बाद उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया, बोला कि वो आपको जानता है और इसलिए पैसे नहीं लेगा "|
वो सोच में पड़ गया , अपने गाँव का छोटी जात का दुकानदार , जिसकी बेटी की शादी में १०१ रुपये देकर उसने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी |
आज वो अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 22, 2015 at 9:48pm — 12 Comments
वार्तायें ,
किसी सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश में
अपने अपने वैचारिक खूँटे से बंधे बंधे क्या सँभव है ?
आँतरिक वैचारिक कठोरता
क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ?
सोचने जैसी बात है
वार्तायें अपने अपने सच को एन केन प्रकारेण स्थापित करने के लिये नहीं होतीं
न ही लोट लोट के किसी भी बिन्दु को स्वीकार कर लेने लिये ही होती हैं
वार्तायें होतीं है
अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 22, 2015 at 4:36pm — 6 Comments
चटक धूप. आसमान में उड़ते-उड़ते गला सूख गया था. पानी की एक बूँद कहीं नजर नहीं आ रही थी. पानी या तो बोतलों में बन्द था या वहाँ स्वीमिंग पूल में था , लेकिन स्वीमिंग पूल के ऊपर लगी जाली के कारण पाना सम्भव नहीं था.
इस प्रचंड गर्मी में सजे-धजे साफ़-सूथरे शहर में प्यास से व्याकुल चिडियों को खसर-खसर करते वो चापाकल, उनके किनारे की खुली नालियाँ, लगातार टपकती म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की टोटियों की बहुत याद आ रहीं थी.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Shubhranshu Pandey on May 22, 2015 at 3:00pm — 14 Comments
Added by मनोज अहसास on May 22, 2015 at 5:30am — 4 Comments
चकोर सवैया (7 भगण +गुरु लघु ) 23 वर्ण
चाबुक खा कर भी न चला अरुझाय गया सब घोटक साज
अश्व अड़ा पथ बीच खड़ा न मुड़ा न टरा अटका बिन काज
सोच रहा मन में असवार यहाँ इसमे कछु है अब राज
बेदम है यह ग्रीष्म प्रभाव चले जब सद्य मिले जल आज
मत्तगयन्द (मालती) सवैया (7 भगण + 2 गुरु) 23 वर्ण
बीत बसंत गयो जब से सखि तेज प्रभाकर ने हठि…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 9:17pm — 5 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 21, 2015 at 8:38pm — 2 Comments
Added by विनोद खनगवाल on May 21, 2015 at 1:12pm — 4 Comments
आज नयी बहू ने नौकर को बड़ी बहू के कमरे से रात में निकलते देख लिया । रात आँखों आँखों में बीत गयी , किससे क्या पूछे | अगली सुबह बड़ी बहू ने उसके चेहरे को पढ़ लिया और उसे अपने कमरे में बुलाया ।
" मेरे चरित्र के बारे में कुछ धारणा बनाने से पहले मेरे पति को भी जान लो , कई कई महीने घर नहीं आता है और वहाँ क्या क्या करता है , ये सबको पता है "।
छोटी बहू स्तब्ध , कुछ कहे उससे पहले ही वो फिर बोली " और हाँ , जब शरीर को ज़रूरत होती है तो सही गलत कुछ नहीं होता "।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 21, 2015 at 12:28am — 6 Comments
भूकम्प....
यादों के शहर में
मुॅह बिचकाती सड़कें
दरक कर उलाहना देतीं ....दीवारें खिसियाती
जमीं पर भटकते अबोध सितारे
औंधें मुॅह धूल चाटतीं ऐतिहासिक धरोहरें
झुके वृक्ष कुछ और झुक कर पूछना चाहते....कैसे हो?
भूकम्प के झटकों से टेढ़ा हुआ चॉद
चॉदनी धू-धूसरित....
मलबे के नीचे दबे विदीर्ण स्वर अतिशांत
प्रकृति भी सहम उठती।
अडिग अट्टालिकाएं चकनाचूर
बिछड़े आँखों के नूर
भाग्य स्वयं को कोसते.....तो, संवेदनाएं मूक।
मैदानों…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 20, 2015 at 8:00pm — 8 Comments
Added by मनोज अहसास on May 20, 2015 at 4:48pm — 3 Comments
1222 1222 1222 1222
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मुहब्बत है कभी जिसने मुझे कहला दिया साहिब
मगर फिर घाव उसने ही बहुत गहरा दिया साहिब
जरूरत ही नहीं होती मुहब्बत में व़फाओं की
के बच्चों की तरह उसने मुझे बहला दिया साहिब
सड़क पर भूख से बेचैन माँ आँसू बहाती है
निवाला बेटे को जिसने ,कभी पहला दिया साहिब
मुहब्बत मिट नहीं पायी दीवारों में चुनी फिर भी
रक़ीबों ने जमाने से बहुत पहरा दिया साहिब
बहुत छेड़ा है दुनिया ने खुदा की पाक…
Added by umesh katara on May 20, 2015 at 4:47pm — 10 Comments
कितना सुहाना होगा ………..
अपने अपने दंभों को समेटे
हम इक दूसरे की तरफ
पीठ करके चल दिए
बिना इसका अनुमान लगाये कि
मुंह मोड़ के हम
उन स्नेहिल पलों का
अनजाने में क़त्ल कर रहे हैं
जो हमने
तारों की छाँव में
चांदनी की बाहों में
नशीली निगाहों में
इक दूसरे के कन्धों पर सिर रख कर
इक दूसरे की उँगलियों में उंगलियाँ डालकर
इक दूसरे के केशों से खेलते हुए
निशा में अपने अस्तित्व को
इक दूसरे में विलीन करके संजोये थे
और हाँ…
Added by Sushil Sarna on May 20, 2015 at 2:17pm — 9 Comments
1222---1222---1222---1222 |
|
करो मत फ़िक्र दुनिया की, जो होता है वो होने दो |
जिन्हें कांटें चुभोना है, उन्हें कांटें चुभोने दो |
|
हमारी तिश्नगी नादिम, अजी ये चाहती… |
Added by मिथिलेश वामनकर on May 20, 2015 at 10:30am — 29 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 20, 2015 at 6:59am — 4 Comments
प्रथम श्रेणी के रिजर्व कोच में अपनी नव परिणीता पत्नी को लाल जोड़े में लिपटी देखकर भी मैं उस एकांत में बहुत खुश नहीं था I नए जीवन की वह काली सर्द रात जो उस रेलवे कम्पार्टमेंट में थोड़ी देर के लिए मानो ठहर सी गयी थी I मेरे लिए नया सुख, नयी अनुभूति और नया रोमांच लेकर आयी थी I फिर भी मैं उदास, मौन और गंभीर था I ट्रेन की गति के साथ ही सीट के कोने में बैठी वह सहमी-सिकुड़ी, पतली किन्तु स्वस्थ काया धीरे-धीरे हिल रही थी I मैंने एक उचटती निगाह उसकी ओर डाली फिर अपनी वी आई पी अटैची के उस…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 6:39pm — 13 Comments
भूख और थकावट से चूर दोनों असहाय भाई-बहन एक-दूसरे से लिपट कर लेट गये.
आज सुबह के भूकम्प में अपने मां-पापा को खो देने के बाद से ये छः वर्षीय भाई ही तो उसका सम्बल था.
दो वर्ष छोटी बहन को ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई के सीने पर सर रख देने से ही उसकी सारी समस्याओं का निदान हो गया हो.
अचानक खयाल आया, उसके भाई के लिये आखिर सम्बल कौन है ?
उसके नन्हे हाथ अनायास भाई के गालों पर फैल गये आँसुओं को साफ़ कर उसके धूल भरे बालों को सहलाने लगे.
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मौलिक…
ContinueAdded by Shubhranshu Pandey on May 19, 2015 at 5:18pm — 19 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२२ - रमल मुसम्मन सालिम |
ज़िंदगी कैसे चले जब साथ कोई छोड़ जाये | |
जब खुशी हो पास आये ग़म पड़े दिल तोड़ जाये | |
दूर का जब हो सफर तब आसरा सब ढूढ़ते हैं… |
Added by Shyam Narain Verma on May 19, 2015 at 3:47pm — 10 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 19, 2015 at 7:17am — 7 Comments
" पापा , आपने अगर मुझे बेटी माना है तो मुझे इस अधिकार से कभी वंचित मत कीजियेगा ", विदा होते समय वो उनसे लिपट कर रो पड़ी थी और वहाँ मौज़ूद लोगों की आँखें नम हो गयी थीं ।
वो अपने एकलौते पुत्र को खो बैठे थे जिसकी नयी नयी शादी हुई थी , और हर उस आवाज़ के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे जो उनकी बहू को इस हादसे के लिए दोषी ठहरा रहे थे । फिर उन्होंने बहू को धीरे धीरे सँभाला और उसे अपनी बेटी का दर्ज़ा दे दिया । उसके अपने माता पिता भी संतुष्ट थे कि वो अब उस घर की बेटी बन गयी थी ।
आजीवन उनका…
Added by विनय कुमार on May 19, 2015 at 2:47am — 14 Comments
विकासवाद का चरित्र
सड़क, गली, कूचों व मैदानों में
उन्मादी संक्रमण मस्ती करते
विकल, प्राण पखेरू
समूहों में फड़फडाते- गिड़गिडाते
गगन, हवा, दीवारों में सिर मार कर डूब जाते
सागर, सरोवर, ताल, नदी, झीलों में
बजबजाता विकासवाद
अशिष्ट पन्नियों से ।
दलदल में कमलदल, दलगत उन्मुक्त पर
स्थिर, मूक, भावहीन संज्ञाएं
क्रियाशील भौंरे सब हवा हो गए
गुम गयीं - तितलियॉं
सौन्दर्य निगलती- वादियॉं
दिशाएं- दिशाहाीन, पूर्णत: शुष्क पछुवा पर निर्भर…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 18, 2015 at 9:08pm — 16 Comments
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