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अस्मिता-बोध (कहानी ) -डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

      प्रथम श्रेणी के रिजर्व कोच में अपनी नव परिणीता पत्नी को लाल जोड़े में लिपटी देखकर भी मैं उस एकांत में बहुत खुश नहीं था I नए जीवन की वह काली सर्द रात जो उस रेलवे कम्पार्टमेंट में थोड़ी देर के लिए मानो ठहर सी गयी थी I मेरे लिए नया सुख, नयी अनुभूति और नया रोमांच लेकर आयी थी I फिर भी मैं  उदास, मौन और गंभीर था I ट्रेन की गति के साथ ही सीट के कोने में बैठी वह सहमी-सिकुड़ी, पतली किन्तु स्वस्थ काया धीरे-धीरे हिल रही थी I मैंने एक उचटती निगाह उसकी ओर डाली फिर अपनी वी आई पी अटैची के उस अधखुले भाग की ओर देखने लगा I  जहाँ से तमाम चिठ्ठियां,  बधाई पत्र एवं प्रशंसा के हस्ताक्षरों का समूह मेरी ओर उपेक्षा से झांक रहा था I ये प्रमाण-पत्र उन जागरूक नागरिको के थे जिन्होंने मेरे द्वारा एक गरीब, बेजार, अनाथ और अस्पर्श्य समझी जाने वाली लडकी को साहसपूर्वक स्वीकार करने के निर्णय पर कृतज्ञता का ज्ञापन पत्रो के माध्यम से किया था I

       यह सच भी था I सरिता को अपनाने से पूर्व मुझे अपने माता-पिता से कड़ा संघर्ष करना पड़ा था I दुर्दांत दस्युओं की वासना का शिकार मझिगवां नामक गाँव की अछूत बाला सरिता से मेरा परिणय करने को वह तब तक तैयार नहीं हुए जब तक मै खुले विरोध पर उतर नहीं आया I  विवाह के समय भी उत्तेजित जनता रवि सक्सेना जिंदाबाद !‘रवि हमारा आदर्श है ! आदि नारे लगा रही थी I उस समय मेरे मन में पहली बार यह भावना उठी कि शायद मैंने वास्तव में कोई आदर्श स्थापित किया है I  किन्तु, यह सात्विक भावना अधिक देर तक ठहर नहीं सकी I  मैं अहम् भावना से ग्रस्त हो गया I

       आज से कुछ दिन पहले तक मैंने सोचा भी न था कि विवाह के सम्बन्ध में मुझे इतना आकस्मिक और त्वरित निर्णय लेना पड़ेगा I  किन्तु मझिगवां गाँव में हुयी डकैती के जांच अधिकारी श्री सक्सेना ने जब यह प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मै उनका छोटा साला ना नही कर सका  I  उन्होंने आँखों में आंसू भरकर केवल इतना ही कहा-‘’बेटा रवि, मै सरिता को जान गया हूँ I वह एक अच्छी लडकी है I मुझे पूरी उम्मीद है की वह एक आदर्श पत्नी भी साबित होगी भी और यह  कि तुम मुझे निराश नहीं करोगे I तुम्हारे इस साहस पर मुझे ही नहीं सारे देश को गर्व रहेगा I   देश को गर्व हुआ या नहीं यह तो कोई नहीं जानता पर मुझे अपने निर्णय पर बड़ा गर्व हुआ I  फिर भी कुछ झिझकते हुए मैंने पूंछा -‘लेकिन क्या तथाकथित बलात्कार के बाद सरिता हीन भावना से ग्रस्त नहीं होगी ?’

       जीजा जी मुस्कराकर बोले I‘मै इसका दावा तो नहीं कर सकता कि ऐसा नहीं होगा I  पर सरिता पोस्ट-ग्रेजुएट है I  तुम्हारा सहयोग उसका काम्प्लेक्स धो देगा I बशर्ते तुम बेवजह की सहानुभूति दर्शाने की गलती नहीं करोगे तो I  मान लो ऐसा हादसा शादी के बाद होता तब भी तो स्थिति से समझौता करना ही पड़ता I काम्प्लेक्स दूर करना पड़ता I सही ट्रीटमेंट न मिलने पर ऐसी ही लडकियां आत्महत्या कर लेती हैं I   

       मै केवल सर हिला कर रह गया था I  मुझे लगा इस हीरोशिप में अभी कई इम्तहानों से गुजरना है I मैं जानता था कि यह सारी प्रशंसाये दो दिन की है I फिर कौन मुझे याद करेगा I लेकिन मेरा निर्णय ठोस था I वह आवेश अथवा सामयिक जयकारो का मुखापेक्षी नहीं था I  मेरी भावना के मूल में केवल इतना था कि मै एक अच्छा कार्य कर रहा हूँ और मेरे इस कदम से कम से कम एक जिन्दगी बर्बाद होने से बच जायेगी I इस प्रकार मेरा जीवन समाज के कुछ तो कम आयेगा I          

‘सुनिए जी -------!’

         मेरी विचार श्रृंखला टूट गयी  I सामने दुल्हन के परिधान में सरिता खडी थी I  सांवली, स्वस्थ और सुन्दर I आँखे थकी-थकी, अलसाई हुईं ! मैंने विनम्रता से पूंछाI -‘’हां, बोलो -----?’

‘ठंढ लग रही है I’- उसने कंपकंपाते हुए कहा I  देखिये शायद अगले स्टेशन पर चाय मिल जाय ?’

        प्रारंभ में ही उसकी स्पष्टवादिता ने मुझे चकित कर दिया I  उसकी बात से यह लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिले है I  मैंने हल्के अविश्वास से सिर  हिलाते हुए कहा I –‘हाँ, ठीक है I अभी तुम लिहाफ ओढ़कर चुपचाप लेट जाओI’  ‘ 

‘आप नहीं लेटेंगे क्या---?’

‘मुझे अगले स्टेशन पर चाय देखनी है ?’

‘कुछ परेशान लग रहे हैं ----? आपकी तबियत तो ठीक है ?’

       मैंने महसूस किया कि सरिता किसी भी प्रकार से हीन भावना का शिकार नहीं है I मैंने उसके मन की थाह लेने के लिया अपने मन की उलझन उसके सामने रखी I – ‘सरिता मुझे लगता है,  मै इस विवाह से खुश नहीं हूँ I’

‘आं -------‘ ?’- उसकी सारी नींद मानो एकबारगी ही गायब हो गयी I  उसकी बड़ी-बड़ी आँखे आश्चर्य से फ़ैल गयी I  शायद उसे मेरी बात पर भरोसा नहीं हुआ I  उसने धीरे से कहा -‘लेकिन मुझे बताया गया था आप यह शादी बाखुशी अपनी मर्जी से कर रहे है ?’

‘यह तो सच है पर जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि आज से मेरा जीवन एक प्रकार से ख़त्म हो गया I शादी के बाद युवा सपने मिट्टी हो जाते हैं I एक दिन का बादशाह बनने के बाद मेरा मूल्य क्या रह गया है ? मुझे अपने पर बड़ा नाज हुआ करता था I  सोचता था जीवन में कोई बड़ा काम करूंगा,  जिससे समाज का कुछ व्यापक भला होगा I यह शादी कर मेरी मह्त्वाकांक्षा कुछ तो पूरी हुयी है I लेकिन, इस अहसास के साथ कि जीवन में केवल एक बार हीरो बना जा सकता है बार-बार नहीं I’ तुम्हीं बताओ सरिता क्या मै जीवन में फिर कभी दूल्हा बन सकता हूँ या किसी बेबश, गरीब और जरूरतमंद लडकी को मेरा विवाहित जीवन फिर संरक्षण दे सकता है ?’

       मेरे इस लम्बे वक्तव्य का सरिता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा I   उसने बड़ी गंभीरता से उत्तर दिया I –‘ मै आपकी महानता को हृदय से स्वीकार करती हूँ I  मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसा क्यों सोचते है ? देश की रक्षा के लिए जो सैनिक वीरगति प्राप्त करते हैं ? यदि वे अपने जीवन का रोना रोयें कि एक बार फिर जीवन मिलता और हम फिर देश के काम आते ? तो इसे आप क्या कहेंगे ?  हो सकता है कि ऐसा हो भी जाये पर दोनों जीवन तो भिन्न होंगे I   इस जीवन से अगले जीवन का क्या सम्बन्ध है I फिर उसके लिए रोना क्यों ? इस दीवानेपन को आप क्या कहेंगे ? जब तक आपने मुझे स्वीकार नहीं किया तब तक आप जैसे प्रबुद्ध एवं  प्रगतिशील व्यक्ति की आवश्यकता समाज को थी I  किन्तु, अब आपकी आवश्यकता समाज को नहीं इस सरिता नाम की लडकी को है I दुनिया में कोई सीट कभी खाली नहीं रहती I अगली पंक्ति के खाली होते ही पिछली पंक्ति उसका स्थान ले लेती है I  इसलिए आप व्यर्थ की बातों में अपने को मत उलझाईये I’

        मुझे लगा सरिता नामक इस लडकी ने भरे बाजार में मुझे नंगा कर दिया I मै सरिता से इतने विवेकपूर्ण उत्तर की आशा नहीं करता था I  मेरे अहम् ने इस चुनौती को स्वीकार नहीं किया I  मैंने प्रतिकार करते हुए कहा -‘’तुम्हारी उपमा संगत नहीं है, सरिता ! मेरे आदर्श, मेरे वसूल, मेरे विचार और संकल्प  क्या अब केवल कल्पना की वस्तु नहीं रह गये ? मै धधकते भाड़ का एकाकी चना बन कर रह गया हूँ जिसका विस्फोट रेत के ढेर में भुसभुसा हो गया है I क्योंकि मैंने अपने कुंवारेपन का सौदा कर लिया I  एक सस्ता सौदा I  बदले में मुझे क्या मिला I बधाइयाँ, पत्र, सम्मान, प्रशंसा और आदर्श के लम्बे चौड़े व्याख्यान ! नहीं सरिता इस विवाह से मुझे संतोष नहीं है I  मै घुट रहा हूँ I’

         मेरा आवेश शब्दों की ध्वनि में समा गया I मुझे ऐसा भी प्रतीत हुआ कि एक बार फिर मै अपने पक्ष को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं कर सका I सरिता ने कोई उत्तर नहीं दिया वह I  वह मेरे वक्ष पर शीश रख फूट-फूट कर रोने लगी  I  मेरा अहम् मानो चीत्कार कर उठा I तभी मुझे सरिता की आवाज सुनायी दी I  उसने अपने को संभाल लिया था I

‘मै आपके भारी-भरकम सवालों का जवाब नहीं दे सकती I  मुझे इतना ज्ञान नहीं है I  मै केवल इतना जानती हूँ कि युवा सपने अपरिपक्व मस्तिष्क की देन होते है I उनका अंत टूटने में ही है और समाज सुधार किसी एक के बस की बात नहीं है I उसके लिए सांस्कृतिक चेतना, पुनर्जागरण और युग-परिवर्तन की आवश्यकता होती है I  मेरी छोटी सी समझ में इस अभियान में अभी तक आप अकेले थे और अब मै आपके साथ हो गयी हूँ I  आगे चलकर हमारी संख्या बढ़ेगी और एक नए समुदाय का गठन होगा I जब आप कहते है कि आपने अपने कुंवारेपन का सस्ता सौदा कर लिया तो आप निश्चय ही बहुत बौने बन जाते है I  मै आपके विचारों  को विवाह पूर्व से जानती हूँ I दहेज, छुआछूत आदि कुप्रथाओ के आप सदैव कट्टर विरोधी रहे हैं I इस पर भी अगर आप सस्ते सौदे की बात करते है तो निश्चय ही इतना ऊंचा उठकर भी आप अपने संस्कार की बेड़ियाँ तोड़ नहीं पाए हैं I मेरी प्रार्थना है कि इस स्पष्ट कथन के लिए आप इस अभागी लडकी को अवश्य छमा करेंगे I’

        सरिता का यह निश्छल और तर्क संगत उत्तर सुनकर मैं फिर से धरातल पर आ गया I त्याग, बलिदान और आदर्श का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति शिरोमणि के जिस पद पर मैंने स्वयं को प्रतिष्ठित किया था,  वह अहम् पल भर में ही घुल गया I  मुझे फिर से अहसास होने लगा कि मै भी एक साधारण सा व्यक्ति हूँ और सरिता मेरी विवाहिता पत्नी I मैंने सोचा कहाँ मैं सरिता के काम्प्लेक्स की बात करता था पर यहाँ तो मै स्वयं इतने बड़े काम्प्लेक्स का शिकार हो चुका था I  

         मैंने संयत होकर कटाक्ष किया I – ‘चलो मान लिया कि तुम्हारी बात सही है पर इस बात की क्या गारंटी है कि तुम्हे पाने के बाद मेरा दिल किसी और लडकी पर नही आएगा ?’

‘लड़कियां भी अब पुरुषो की बराबरी पर धीरे-धीरे आ रही हैं I उसने मुस्कराकर धीरे से कहा तो पर फिर अपनी ही बात पर झेंप गयी I

         मेरे चेहरे का रंग थोडा सा बिगड़ा I  तभी सरिता ने मेरे पैर पकड़ लिये और उलाहना भरे स्वरों में कहा I -‘आप क्यों बार-बार मुझे काँटों में घसीटते हैं I  अब आप ही मेरे आश्रय है I  दुनियां की कोई भी स्त्री सच्चा आश्रय पाकर फिर नहीं भटकती I  हाँ कभी-कभी पुरुष जरूर भटक जाते हैं I’

        मैंने सरिता को बाहो में धीरे से उठाया I अब हम दोनों के चेहरे आमने-सामने थे और हम एक दूसरे की सांसो के स्पर्श से किसी अतीन्द्रिय पुलक का अनुभव करते हुए आत्मविस्मृत होने ही वाले थे कि  सरिता ने चेताया I - ‘अगला स्टॉप आ रहा है, ट्रेन की रफ़्तार कम हो चुकी है I’

(मौलिक व् अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 28, 2015 at 5:40pm

सुझाव को अनुमोदन मिला, हार्दिक धन्यवाद आदरणीय गोपाल नारायनजी.

सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 28, 2015 at 2:50pm

आदरणीय सौरभ जी

बिलकुल हथेलियों  का पकड़ना सही विकल्प है  i  श्रंखला  के लिए मै दोषी हूँ -- शृंखला सही है  i  सादर .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 28, 2015 at 1:30am

आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी यह कथा क्षणिक उद्वेग में कठिन और दूरगामी निर्णय ले लेने वालों की ढुलमुलाती हुई मनोदशा को समुचित ढंग से अभिव्यक्त करती है. लेकिन यह भी है, कि जिस तरह से आपने स्त्री पात्र के आत्मविश्वास को शाब्दिक कर उसे रुपायित किया है वह आपके अध्ययन का उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत करता है. प्रतीत होता है कि बांग्ला-साहित्य की स्त्रियाँ आपके मनोभाव पर हावी हैं. यह अच्छा भी है. आज के दौर में ’आदर्श’ को पुनर्रेखांकित करना बहुत आवश्यक हो गया है.
आपकी कथा की सफलता इसके विन्यास के कारण भी संभव हो पायी है. हालाँकि स्त्री पात्र के मुँह से ऐसे स्वाभिमानी किन्तु संयत वाक्य, वह भी उस दशा में, जब कि उक्त बल्तकृता उपकृता हुई साथ हो, तनिक कृत्रिम लगते हैं, लग सकते हैं. किन्तु, कथा के वातावरण के अनुसार वे स्वीकार्य हो जाते हैं.  किन्तु, ऐसी स्त्री पात्र से यह अपेक्षा करना कि वह पुरुष (पति) के हठात पैर पकड़ लेगी, उससे भी अधिक कृत्रिम लग रहा है - तभी सरिता ने मेरे पैर पकड़ लिये और उलाहना भरे स्वरों में कहा.

इसे यों होना था - तभी सरिता ने मेरी दोनों हथेलियों को ज़ोर से पकड़ लिये और उलाहना भरे स्वरों में कहा !
संभवतः मेरी तार्किकता आपको संतुष्ट कर पायेगी. ..  :-))
दिल की गहराइयों से बधाइयाँ लें, आदरणीय.


एक बात :
मेरी विचार श्रृंखला टूट गयी .. इस वाक्य में श्रृंखला कौन सा शब्द है, आदरणीय ?
श्रृंखला  या शृंखला ?

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 8:58pm

आ० सरना जी 

सादर आभार .

Comment by Sushil Sarna on May 21, 2015 at 7:47pm

मेरे चेहरे का रंग थोडा सा बिगड़ा I तभी सरिता ने मेरे पैर पकड़ लिये और उलाहना भरे स्वरों में कहा I -‘आप क्यों बार-बार मुझे काँटों में घसीटते हैं I अब आप ही मेरे आश्रय है I दुनियां की कोई भी स्त्री सच्चा आश्रय पाकर फिर नहीं भटकती I हाँ कभी-कभी पुरुष जरूर भटक जाते हैं I’
वाह आदरणीय डॉ गोपाल श्रीवास्तव जी बहुत ही सुंदर और सार्थक कहानी कही बन पड़ी है। प्रस्तुत अंश कुछ सोचने को मजबूर करता है। हार्दिक बधाई आदरणीय।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 11:23am

आ० वामनकर जी

आपका सुझाव सिर आँखों पर . सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 11:20am

श्री सुनील जी

सादर आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 21, 2015 at 6:14am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर, टूटते अहं और हृदय द्वार खोलती बहुत हीं अच्छी कहानी हुई है. हार्दिक बधाई 

मेरे आदर्श, मेरे वसूल (उसूल) कर लीजियेगा.

Comment by shree suneel on May 21, 2015 at 3:01am
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर, बहुत हीं अच्छी कहानी प्रस्तुत की आपने. सरिता के बुद्धिमतापूर्ण संवादों ने तो मन मोह लिया. बधाई हो..
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 20, 2015 at 7:05pm

आ० विनय कुमार जी

सरिता भी  भारतीय नारीगत संस्कार से मुक्त नहीं ही i विद्वान होना अलग बात है  और संस्कारवान  होना बिलकुल अलग i शायद आपका कुछ समाधान हुआ हो . सादर .

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