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आसमां ____मनोज कुमार अहसास

जैसी ज़मीन हो गयी वैसा ही वो हुआ
दूरी से नहीं बेरुखी से आसमां हुआ

पत्थर का शहर हाथ में खंज़र लिए हुए
रोता था मेरी याद में सर नोचता हुआ

ऐसी भी भरी भीड़ न देखी कभी दिलबर
एक ज़िन्दगी में दर्द का मेला लगा हुआ

वैसे तो तुझे भूल भी जाऊ मै जिंदगी
लेकिन ये तेरी याद का जीवन बना हुआ

उस पार का भी गम मेरी आँखों में है मगर
लेकिन ये कफ़न वक़्तका मुझपर पड़ा हुआ

जाता नहीं है आँख से मंज़र कभी भी वो
मै ख़त जला रहा था उसी का लिखा हुआ

मैं लिख नहीं सकता,मैं कभी कह नहीं सकता
कैसे वो मेरे इश्क़ से ऎसे रिहा हुआ

कमियां है लाख इसमें ये इश्क़ जो ठहरा
देना वही इलज़ाम जो न हो लगा हुआ

कहते है वो ग़ज़ल तो यही सोचता हूँ मैं
लाऊगा मै कहाँ से ये खाका बना हुआ

उसने ये कह दिया है अब कुछ नहीं रहा
अहसास रह गया है तमाशा बना हुआ
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on May 22, 2015 at 9:20pm
आपका आशिर्वाद है सर
आभार
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 22, 2015 at 9:03pm

आ० मनोज जी

आपने बहुत सुन्दर गजल कही है i मैं  आपको बधायी देता हूँ .

Comment by मनोज अहसास on May 22, 2015 at 6:54pm
शुक्रिया सर
आपने पढ लिया इन पंक्तिया को रचना कह दिया
बहुत आभार
Comment by Shyam Narain Verma on May 22, 2015 at 11:12am
बहुत  सुंदर और भावपूर्ण रचना  हुई है | हार्दिक  बधाई 

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