अहबाब ऐतबार के काबिल नहीं रहे
ये कैसे सर हैं ..! दार के काबिल नहीं रहे
जज़्बात इफ्तेखार के काबिल नहीं रहे
अब नवजवान प्यार के काबिल नहीं रहे
हम बेरुखी का बोझ उठाने से रह गए
कंधे अब ऐसे बार के काबिल नहीं रहे
ज़ागो ज़गन तो खैर, तनफ्फुर के थे शिकार
बुलबुल भी लालाज़ार के काबिल नहीं रहे
पस्पाइयौं के दौर में यलगार क्या करें
कमज़ोर लोग वार के काबिल नहीं रहे
कांटे पिरो के लाये हैं अहबाब किस लिए
क्या हम गुलों के हार…
Added by Azeez Belgaumi on May 25, 2011 at 12:15am — 7 Comments
हर दिन जमाना दिल को मेरे आजमाता है
मिलता है जो भी, बात उसकी ही चलाता है
मालूम है मुझको की आईना है सच्चा पर
ये आजकल, सूरत उसी, की ही दिखाता है
पीना नहीं चाहा कभी मैने यहाँ फिर भी
मयखाने का साकी, ज़बरदस्ती पिलाता है
सच है खुदा तू ही मदारी है जहाँ का बस
हम सब कहाँ है नाचते, तू ही नचाता है
"मासूम" अब रोना नहीं दुनिया मे ज़्यादा तुम
इस आँख का पानी उठा सैलाब लाता है
Added by Pallav Pancholi on May 25, 2011 at 12:00am — 3 Comments
Added by Rash Bihari Ravi on May 24, 2011 at 7:30pm — 1 Comment
तेरे लब छू के, कोई हर्फ़-ए-दुआ हो जाता.
तू अगर चाहता, तो मैं भी ख़ुदा हो जाता.
====
तन्हाइयों में गीत लिखे, और गा लिए.
नाकाम दिल के दर्द हँसी में छुपा लिए.
कल शब जो ज़िंदगी से हुआ सामना "साबिर"
क़िस्से सुने कुछ उसके, कुछ अपने सुना लिए.
====
हमने तो तुझे अपना ख़ुदा मान लिया है,
अब तेरी रज़ा है कि करम कर या मिटा दे.…
ContinueAdded by डॉ. नमन दत्त on May 24, 2011 at 6:30pm — 6 Comments
दिल की बात आँखों से बताना अच्छा लगता है.
झूठा ही सही पर आपका बहाना अच्छा लगता है.
छू जाती है धडकनों को मुस्कराहट आपकी,
फिर शरमा के नज़रे झुकाना अच्छा लगता है.
मुरझे फूलों में ताजगी आती है आपको देखकर,
आप संग हो तो मौसम सुहाना अच्छा लगता है.
बिन बरसात के ही अम्बर में घिर आते है बादल,
आपकी सुरमई जुल्फों का लहराना अच्छा लगता है.
जंग तन्हाई के संग हम लड़ते है रात-दिन,
देर से ही सही पर आपका आना अच्छा…
ContinueAdded by Noorain Ansari on May 24, 2011 at 1:00pm — 3 Comments
Added by neeraj tripathi on May 24, 2011 at 12:00pm — 1 Comment
भूख-वहशी , भ्रम -इबादत वजह क्या है
हो गयी नंगी सियासत, वजह क्या है ?
मछलियों को श्वेत बगुलों की तरफ से -
मिल रही क्या खूब दावत, वजह क्या है ?
राजपथ पर लड़ रहे हैं भेडिये सब…
ContinueAdded by Ravindra Prabhat on May 24, 2011 at 11:31am — 2 Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 23, 2011 at 10:50pm — 3 Comments
उखाड़ दो खूंटे ज़मीन से इबादतगाहों के ,
उतारो गुम्बद,
समेटो खम्भे,
उधेड़ दो सारे मंदिर-मस्जिदों के धागे,
मिट्टी-पत्थरों में ख़ुदा नहीं बसता,
सुकूँ…
ContinueAdded by Veerendra Jain on May 23, 2011 at 1:40pm — 10 Comments
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on May 23, 2011 at 11:30am — 3 Comments
Added by Rajeev Kumar Pandey on May 23, 2011 at 9:51am — No Comments
सूचना क्रांति के दौर में हम भले ही अंतरिक्ष और चांद पर घर बसाने की सोच रहे हों, लेकिन अंधविश्वास अब भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है। वैज्ञानिक युग के बढ़ते प्रभाव के बावजूद अंधविश्वास की जड़ें समाज से नहीं उखड़ रही हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जादू-टोना के नाम पर लोगों को प्रताड़ित किए जाने, आंख फोड़ने, गांव से बाहर निकाल देने सहित कई तरह…
ContinueAdded by rajendra kumar on May 23, 2011 at 12:21am — No Comments
दायरे सिमट के रह गए हैं यूँ ग़म-ए-रोज़गार में,
दोस्तों से भी मिला अब तो करते हैं वो बाज़ार में....
पैसा तो हाथों का मैल होता है,
लेकिन अक्सर ये मलाल होता है.
होने लगते हैं हाथ मैले तो,
रिश्तों से क्यूँ, इंसान हाथ धोता है.
"नागहाँ ये अजब सा मुकाम आया,
आज तन्हाई को भी तन्हां पाया.."
Added by AjAy Kumar Bohat on May 21, 2011 at 7:50am — No Comments
Added by Sheel Kumar on May 20, 2011 at 10:45pm — 1 Comment
Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on May 19, 2011 at 11:00pm — No Comments
Added by neeraj tripathi on May 19, 2011 at 6:48pm — No Comments
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 17, 2011 at 11:44pm — 1 Comment
ग़ज़ल :- पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे
पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे ,
घाव जो गहरे थे अब बढ़ने लगे |
…
ContinueAdded by Abhinav Arun on May 17, 2011 at 10:01am — 7 Comments
= एक =
कोई इंसा "किसी" के लिए -
सिसकता है, मचलता है, तड़पता है......
रोता है, मुस्कुराता है....
गाता है, गुनगुनाता है....…
ContinueAdded by डॉ. नमन दत्त on May 17, 2011 at 9:06am — 3 Comments
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