आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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कथा पर आने केलिये आभार आदरणीय तस्दिक अहमद जी,
//आँखों पर शेड बनाये हुए अपनी नज़र कहीं दूर टिकाये, बिना मेरी ओर देखे ही उसने कहा - “..आधा फ़ागुन बीत गया न.. चना और गेहूँ की फ़सलें तैयार हो गयी होंगीं..”
गाडि़यों की लम्बी कतारों और खड़ी होती ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों के बावज़ूद मानों वो अपने खेत को लहलहाता हुआ महसूस कर रहा था.//नम कर देने वाली पंक्तियाँ हैं ये आदरणीय,
//अदरक को पत्थर से कूँचते हुये चायवाले के मन का दर्द साफ झलक रहा था.// इस पंक्ति में ये जो . 'अदरक का कूंचा जाना' जिस ओर इंगित कर रहा है वो सटीक है ,हार्दिक बधाई इस उत्कृष्ट सृजन पर आदरणीय .
हार्दिक बधाई आदरणीय शुभ्रांशु जी! मार्मिक लघुकथा!भौतिकवाद का शिकार होते ज्यादातर किसानों की यही कहानी है!
शुभ्रांशु भाई, बेहद मार्मिक चित्रण किया है, हकिकत के बेहद नजदीक रचित यह लघुकथा झकझोर देने के लिए काफ़ी है, बहुत बहुत बधाई.
बहुत ही बढ़िया विषय का चयन किया है आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी, और अंतिम पंक्ति ने रचना में जान डाल दी| सादर बधाई स्वीकार करें|
वाह, वाह, बहुत बेहतरीन रचना विषय पर, हक़ीक़त के काफी नज़दीक| बहुत बहुत बधाई इस प्रभावी रचना के लिए
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