221 1222 22 221 1222 22
जितना बड़ा जो झूठा है वो, उतना ही अधिक चिल्लाता है
आवाज़ के पीछे चुपके से, रस्ते से यूँ भी भटकाता है
तुम बाँच रहे हो जो इतना, अज्दाद के किस्से मंचों से
उन किस्सों को सुनने वाला अब, पत्थर पे जबीं टकराता है
इंसान फ़कत है इक ज़र्रा, मिट जाएगा खुद इक झटके में
आकाश को छूती मीनारें, बेकार ही तू बनवाता है
है रंग बदलने में माहिर, हर शख़्स सियासत के अंदर
कुछ भी कहे वो लेकिन मतलब, कुछ और निकलकर आता है
इस लोक का तुझको क्या कोई, है ज्ञान ज़रा बतला बाबा!
अनदेखी कहानी गढ़-गढ़कर, परलोक मुझे दिखलाता है
अज्दाद - पुरखे
(मौलिक, अप्रकाशित)
Comment
आद0 शिज्जू शकूर जी सादर अभिवादन। बढिया ग़ज़ल कही आपने।ह्रे शैर कुछ न कुछ अपने अंदर समेटे हुए है। मतला बहुत खूबसूरत।
इस लोक का तुझको क्या कोई, है ज्ञान ज़रा बतला बाबा!
अनदेखी कहानी गढ़-गढ़कर, परलोक मुझे दिखलाता है
वाह क्या कहने। शैर दर शैर मुबारकवाद कुबूल करें।
हार्दिक बधाई आदरणीय शिज्जू शकूर जी।लाज़वाब गज़ल।
है रंग बदलने में माहिर, हर शख़्स सियासत के अंदर
कुछ भी कहे वो लेकिन मतलब, कुछ और निकलकर आता है
आ. भाई शिज्जू जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
क्या कहने आदरणीय शानदार ग़ज़ल पढ़ने को मिली..सादर
है रंग बदलने में माहिर, हर शख़्स सियासत के अंदर
कुछ भी कहे वो लेकिन मतलब, कुछ और निकलकर आता है
सियासत का यह शे र बेहद पसन्द आया |सारी गजल ही व्यंग्य से भरी हुई है |इस रचना पर दिली बधाई |
जनाब शिज्जु शकूर साहिब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
आदरणीय शिज्जू जी,
आपकी इस ग़ज़ल के बारे में एक दिलचस्प चीज ये है कि इसकी तकती 'हज़ज मुसद्दस अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़ मुखन्नक मुजाइफ़' (मफ़ऊलु मफ़ाईलुन फेलुन मफ़ऊलु मफ़ाईलुन फेलुन > 221 1222 22 221 1222 22) और 'मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुस्सकिन मुज़ाइफ़' (फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन > 22 22 22 22 22 22 22 22) दोनों में हो सकती है. और दोनों के हिसाब से यह ठीक है.
इसको 221 1222 22 221 1222 22 पर निभाना एक असाधारण चीज है. इसके लिए अतिरिक्त दाद!
सादर
आदरणीय शिज्जू जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
जितना बड़ा जो झूठा है वो, उतना ही अधिक चिल्लाता है
आवाज़ के पीछे चुपके से, रस्ते से यूँ भी भटकाता है
:)))))))))
आखिरी शेर भी बहुत अच्छा लगा .
सादर
आ. शिज्जू भाई,
कल आयोजन में आपकी कमी खली...
लेकिन आप है कि दीपावली खत्म होने के बाद पटाखे चला रहे हैं..
बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है ...
.
इंसान फ़कत है इक ज़र्रा, मिट जाएगा खुद इक झटके में
आकाश को छूती मीनारें, बेकार ही तू बनवाता है...इस शेर के लिए बधाई ..
सादर
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online