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काल कोठरी

निस्तब्धता

अँधेरे का फैलाव

दिशा से दिशा तक काला आकाश

रात भी है मानो ठोस अँधेरे की

एक बहुत बड़ी कोठरी

सोचता हूँ तुम भी कहीं 

बंधी-बंधी-सी  खोई-खोई

अन्यमनस्क, अवसन्न

इस गहन अँधेरे में भी

परखती होगी तिरछी लकीरों को

इस रात की कोठरी में अकेली रुआँसी

दर्द की दानवी जड़ों से जुड़ती-टूटती

गरमीली यादों की भीगी वाष्प को ठेलती

बेबस, उदास, उसी ज़हरीली भाफ से

बेचैन आँखों को आँज रही होगी

आँजते-आँजते 

कोई तीखी एक सलाई दर्द की

चुभ जाती होगी

तिर आते होंगे गरमीले आँसू ...

सिसकारी भरती  बींधती उदासी

नहीं बदलता दृश्य, नहीं बदलता

रात-देर-तक अपलक गहरे भीतर

अतिशय चिन्ता

नामंज़ूर है फिर भी मन को कोई शर्त

ना ही मंज़ूर है उसे तजुर्बों से समझोता

अकस्मात अनपेक्षित खयालों की कंपकपी

कभी इस कभी उस मजबूरी का तनाव तुममें

मुझमें भी रहा है कब से व्याप

हरदम किसी बेबस कमज़ोरी का संताप

अनुच्चरित विशाद

अजगरी रात, पराजित आस

पास सरकता धुंधलका

काल-कोठरी में हैं फ़ासलों में खोए

दो भीगे हुए मन एकाकार

आर-पार हिमाच्छादित नि:शब्दता

       

                  -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by नाथ सोनांचली on June 26, 2018 at 9:53pm

आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन और प्रभावी रचना पर मेरी बधाई स्वीकार करें। सादर

Comment by Mahendra Kumar on June 26, 2018 at 10:34am

हमेशा की तरह एक और उम्दा कविता के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय विजय निकोर जी। सादर। 

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 26, 2018 at 12:29am

मन बचपन में ,
अबोधपन में ,
कितना निर्भीक निडर ,
साहसी होता है।
जीवन के मध्यान में
वही सशंकित मन ,
सुकून भरा स्थान ढूँढता है।
अवसान में वही मन
हरदम शंकालु सा रहता है ,
हर चीज़ व्यर्थ - निरर्थक सी
लगने लगती है , और चैन
कहीं मिलता नहीं।

जीवन तेरी यही कहानी। आदरणीय विजय निकोर जी , इस सुन्दर यथार्थ पूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई, सादर।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 25, 2018 at 5:38pm

आदरणीय विजय जी हमेशा की तरह एक और बेहतरीन कविता..आदि से अंत तक बांधे रखने में पूर्णतया सफल इस रचना के लिए हार्दिक बधाई..."बेबस उदास उसी जहरीली भाफ से" यहाँ भाफ का अर्थ समझ नहीं आया..कहीं उबलते जल से उठने वाली गर्म वाष्प से है??

Comment by Samar kabeer on June 25, 2018 at 2:36pm

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह सुंदर और प्रभावशाली रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

Comment by TEJ VEER SINGH on June 25, 2018 at 12:52pm

हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी। लाज़वाब प्रस्तुति।

Comment by Neelam Upadhyaya on June 24, 2018 at 4:42pm

आदरणीय विजय निकोर जी, नमस्कार । बहुत ही गंभीर भावपूर्ण रचना की प्रस्तुति। बधाई स्वीकार करें।

Comment by babitagupta on June 24, 2018 at 3:18pm

बेहतरीन स्रजन के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय सर जी.

Comment by Sushil Sarna on June 24, 2018 at 2:07pm

अजगरी रात, पराजित आस

पास सरकता धुंधलका

काल-कोठरी में हैं फ़ासलों में खोए

दो भीगे हुए मन एकाकार

आर-पार हिमाच्छादित नि:शब्दता


वाह आदरणीय विजय निकोर जी आपका हर सृजन आत्मविभोर करता है। गहराइयाँ आकर्षित करती हैं। भाव प्रहार करते हैं। सूक्ष्मत्ता आकार लेती है। ऐसी अद्भुत सृजनशक्ति सिर्फ आपकी कलम ही कर सकती है। इस अप्रतिम सृजन के लिए हार्दिक बधाई सर।

Comment by vijay nikore on February 22, 2018 at 12:22am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय नादिर खान जी।

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