2122-1212-22/112
अब तो इंसाफ भी करें साहिब
हक़ मिरा मुझको दे भी दें साहिब (1)
ऊँचे पेड़ों ने फिर से की साजिश
लोग सब धूप में रहें साहिब (2)
आप सब क्यों उड़े हवाओं में
हम ज़मीं पर ही क्यों चलें साहिब (3)
काग़ज़ों पर लिखा तो पढ़ते हैं
पीठ पर भी कभी लिखें साहिब (4)
न ज़मीं है न आसमाँ अपना
ये बता दो कहाँ रहें साहिब (5)
इतना अफ़सोस है अगर फिर तो
शर्म से डूब कर मरें साहिब (6)
आप सुनते नहीं किसी की तब
आपसे हम भी क्या कहें साहिब(7)
*मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। शे'र नं. 4 पर गुणीजनों से सहमत हूँ, मिसरा -
'इतना अफ़सोस है अगर 'फिर तो' में 'तुम को' कह कर देखें। सादर।
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन। गजल का प्रयास अच्छा हुआ है। हार्दिक बधाई।
आदरणीया Rachna दी
सादर नमस्कार
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हार्दिक आभार. इस्लाह के लिए बहुत शुक्रिया
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी
सादर नमस्कार
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय Sushil Sarna जी
सादर नमस्कार
ग़ज़ल पर आपकी आमद और सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय सालिक गणवीर जी बेहतरीन रदीफ़ के साथ आपने अच्छी ग़ज़ल कही। हार्दिक बधाई।
4 समझने में मुश्किल आ रही है।
5 में "अगर फिर तो" को आपको है तो में बदल सकते हैं।
सादर।
बढ़िया कहा आदरणीय सालिक जी...बधाई
आदरणीय भाई Nilesh Shevgaonkar जी
सादर नमस्कार
बड़ी मेहरबानी जो आप मेरी ग़ज़ल तक आये और हौसला अफ़ज़ाई की,आपका तह-ए दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। आपके सुझाव पर अमल ज़रूर होगा जनाब ,.सलामत रहें.
आ. सालिक जी
अच्छी ग़ज़ल हुई है ..
दे भी दें ज़बान सिखाने वाला जुमला है कि कहाँ ए आएगा और कहाँ अनुस्वार के साथ ए आएगा.
शिल्पगत रूप से ग़ज़ल परिपक्व है.. भाव के लिहाज से शेर थोड़े कमज़ोर हैं.. जैसे
पीठ पर भी कभी लिखें साहिब.. इस मिसरे का कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता .. आप से भविष्य में सुदृढ़ भावों की अपेक्षा है..
बधाई
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