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उसने सफ़र में उम्र के गहना ही पा लिया
जिसने तपा के जिस्म को सोना बना लिया
दो वक़्त भी जिसे कभी रोटी नहीं मिली
उसने भी ज़िन्दगी का यहाँ पे मज़ा लिया
कहते हैं लोग उसको मुहब्बत का बादशाह
जिसने वफ़ा निभाई मगर दिल चुरा लिया
उल्फ़त की राह हो भले काँटों भरी बहुत
चलकर इसी पे हमने मुक़द्दर जगा लिया
हैरान कर गयी है मुझे उसकी जुस्तज़ू
जिसने ख़ला में रहने का सपना सजा लिया
पछता रहा है बाद वही नासमझ यहाँ
जिसने उठा के झूठ का फुग्गा फुला लिया
रहबर न मिल सका है कोई उम्र कट गयी
बदला ‘फणीन्द्र’ तूने ये किस जन्म का लिया
अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत ग़ज़ल प्रयास की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार. आपके सुझावानुसार बदलाव किया है. सादर आभार.
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'कहते हैं लोग उसको मुहब्बत का शहनशाह'
ये मिसरा बह्र में नहीं है 'शहनशाह' की जगह "बादशाह" कर लें तो बह्र में हो जाएगा ।
आदरणीय सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तुत ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
वाहहहहहह आदरणीय जी बेहतरीन ग़ज़ल बनी है सर ।हार्दिक बधाई ।
आदरणीय चेतन प्रकाश जी सादर, प्रस्तुत ग़ज़ल पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार. आपके सुझावों को मैं ध्यान रखूंगा. सादर
आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, प्रस्तुत ग़ज़ल की सराहना हेतु आपका हार्दिक आभार. सादर
आ. अच्छी ग़ज़ल हुई, आपको बधाई, परन्तु शहनशाह( 1221) होता है।और, सही शब्द, जुस्तजू है, देखिएगा। सादर!
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
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