रात के हुस्न पर थी टँकी चाँदनी
पर घटाओं से ही मैं उलझता रहा
चाँद पाने की कोशिश नहीं थी मगर
चाँद छूने को ही मैं मचलता रहा
सिक्त आँचल हिलाती रही रात भर
फिर भी गुमसुम हवा ही बही रात भर
कुछ सितारे ही बस झिलमिलाते रहे
धैर्य की ही परीक्षा चली रात भर
प्रीति के दर्द को भी दबाये हुए
घूँट आँसू के ही मैं निगलता रहा
चाँद आया नहीं देर तक सामने
स्याह बादल लगे चादरें तानने
वक्त जाता रहा रात ढलती रही
फूल पत्ते सभी थे लगे काँपने
बात फूलों की फूलों से होने लगी,
और नज़ारों से ही मैं बहलता रहा
चाँद आया भी तो एक पल के लिए
वक्त भी तो नहीं था पहल के लिए
हाथ भी क्या बढ़ाता मैं संकोच में
बात टल ही गयी फिर तो कल के लिए
आज तक लौटकर पल वो आया नहीं
मैं जमीं पर ही करवट बदलता रहा
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बहुत मनमोहक गीत हुआ है। बहुत बहुत हार्दिक बधाई।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. आपकी सराहना से मेरा रचनाकर्म सार्थक हुआ. आपका सुझाव उत्तम है. किन्तु 'फिर' के साथ 'से' का प्रयोग बहुत अच्छा नहीं माना जाता है. इसकारण तो का प्रयोग किया है. सादर
वाह वाह वाह वाह वाह
आदरणीय अशोक रक्ताले जी, वाह क्या ही मनमोहक गीत लिखा है आपने। गुनगुनाते हुए झूम रहा हूं। बादलों का चादरें तानना तो मुग्ध कर गया। धैर्य की परीक्षा की तो बात ही क्या। चांद आया भी तो एक पल के लिए, प्रतीक्षा की सीमा और अधीरता को शाब्दिक करती पंक्ति। वाह वाह वाह। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
एक निवेदन
हाथ भी क्या बढ़ाता मैं संकोच में
बात टल ही गयी फिर तो कल के लिए
इसमें तो के स्थान पर से और प्रभावी होता-
हाथ भी क्या बढ़ाता मैं संकोच में
बात टल ही गयी फिर से कल के लिए
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत गीत रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. आपके द्वारा दर्शाये बंद में 'अने' की तुकांतता है. सादर
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, बहुत सुंदर और मनभावन गीत लिखा है आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
"चाँद आया नहीं देर तक सामने
स्याह बादल लगे चादरें तानने
वक्त जाता रहा रात ढलती रही
फूल पत्ते सभी थे लगे काँपने"
अपनी जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ कि क्या इस बंद की तुकांतता सही है?
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