तुम सोई
सपनों में खोई
अधर मंद मुस्काते हैं
ये सपने
चुपके से आकर
आखिर क्या कह जाते हैं।
बागों में
चंपा महकी है
मंद हवा
बहकी बहकी है
घनी रात को, तारे आकर
रूप नया दे जाते हैं।
रंग भरे
यह श्वेत चांदनी
कण कण में
इक मधुर रागिनी
नींद भरे बोझिल ये नयना
सुध बुध सब हर जाते हैं।
.
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 11:00am — 42 Comments
तिरंगे को लहराता देख
लगता है
हम आज़ाद हैं
आज़ादी सापेक्ष होती है
आज़ाद हैं अंग्रेजों से
जिंदगी तो अब भी वैसी ही है
वही साँसें
वही चीथड़े
वहीं चाँद
टूटता तारा
वही कुआँ खोदना
फटी जेबें
वही बिवाइयाँ।
कहाँ बदला कुछ
राजाओं के रंग बदल गये
भाषा वही है
सत्ता का चेहरा बदलता है
चरित्र नहीं
आजादी का मतलब
निरंकुशता की समाप्ति तो…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 16, 2013 at 7:00am — 18 Comments
पत्थर चुप हैं
वे ज्यादा बोलते नहीं
ज्यादा खामोश रहते हैं
खामोश रहना
जीवन की
सबसे खतरनाक क्रिया होती है
आदमी पत्थर हो जाता है
खामोशी का कोई भेद नहीं
कोई वर्गीकरण नहीं
बस,
दो शब्दों के
उच्चारण के बीच का अन्तराल
जहां कोई ध्वनि नहीं,
दो अक्षरों के बीच की
खाली जगह
जहां कुछ नहीं लिखा;
कोरा
ऐसे ही पत्थर होते हैं
जहां कुछ नहीं होता
वहां पत्थर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 11, 2013 at 5:00pm — 28 Comments
बार बार भीड़ में
ढूँढता हूँ
अपना चेहरा
चेहरा
जिसे पहचानता नहीं
दरअसल
मेरे पास आइना नहीं
पास है सिर्फ
स्पर्श हवा का
और कुछ ध्वनियाँ
इन्हीं के सहारे
टटोलता
बढ़ता जा रहा हूँ
अचानक पाता हूँ
खड़ा खुद को
भीड़ में
अनजानी, चीखती भीड़ के
बीचों बीच
कोलाहल सा भर गया
भीतर तक
कोई ध्वनि सुनाई नहीं देती
शब्द टकराकर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 5, 2013 at 11:30am — 34 Comments
कितने कितने सूरज चमके
पर अँधियारा शेष रहा
तेरे मेरे मन के अंदर
इक संशय फल फूल रहा।।
सरपत के ढेरों झाड़ उगे
तन छू ले कट जाता है
इन बबूल के काँटों से भी
भीतर तक छिल जाता है
सावन की बौछारों में भी
मन उपवन सब सून रहा।।
तुम मिलते हो मुझको जैसे
इक गुजरी तरुणाई सी
भाव खिलें डाली पर कैसे
वह रूखी मुरझाई सी
साज संवार व्यर्थ रहा सब
धूल भरा यह रूप रहा।।
चिड़ियों ने…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on August 4, 2013 at 3:00pm — 28 Comments
एक सुनहरी आभा सी छायी थी मन पर
मैं भी निकला चाँद सितारे टांके तन पर
इतने में ही आँधी आयी, सब फूस उड़ा
सब पत्ते, फूल, कली, पेड़ों से झड़ा, उड़ा
धूल उड़ी, तन पर, मन पर गहरी वह छाई
मन अकुलाया, व्याकुल हो आँखें भर आई
सरपट भागें इधर उधर गुबार के घोड़े
जैसे चित के बेलगाम से अंधे घोड़े
कुछ न दिखता पार, यहाँ अब दृष्टि भहराई
कैसा अजब था खेल, थी कितनी गहराई
छप्पर, बाग, बगीचे, सब थे सहमे बिदके
मैं भी देखूँ इधर उधर सब ही थे…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 31, 2013 at 10:00pm — 31 Comments
नीरज, बहुत दिन बाद आए
जेठ में भी
बादल दिख गए
पर तुम नहीं दिखे
हमारा साथ कितना पुराना
जब पहली बार मिले थे
तभी लगा था
पिछले जनम का साथ
करम लेखा की तरह
अनचीन्हा नहीं था
तुम्हारे न रहने पर
बहुत अकेला होता हूँ
किसी के पास
समय नहीं
समय क्या
कुछ भी नहीं
दूसरों के लिए
दिन काटे नहीं कटता
तुम नहीं थे
मैं जाता था बतियाने
पेड़…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 27, 2013 at 8:30pm — 18 Comments
सोचता हूँ
क्या होगा
इस नीले आकाश के पार
कुछ होगा भी
या होगा शून्य
शून्य
मन सा खाली
जीवन सा खोखला
आँखों सा सूना
या
रात सा स्याह
कैसा होगा सबकुछ
होगी गौरैया वहां?
देह पर रेंगेंगी
चीटियाँ?
या होगा सब
इस पेड़ की तरह
निर्जन और उदास;
सागर की बूँद जितना
अकल्पनीय
बिना जाए
जाना कैसे जाए
और जाने को…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 25, 2013 at 10:30am — 18 Comments
कभी कभी
खामोश हो जाते हैं शब्द।
जीवन में
कब अपना चाहा होता है
सब।
बहुत कुछ अनचाहा
चलता है संग।
इस दीवार से
झरती पपड़ियाँ;
दरारों में उगते
सदाबहार और पीपल;
गमले में सूखता
आम्रपाली।
दिये की रोशनी सहेजने में
जल जाती हैं उंगलियाँ।
गाँठ खोलने की कोशिश में
ढूंढे नहीं मिलता
अमरबेल का सिरा।
तुम
किसी स्वप्न सी खड़ी
बस…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 20, 2013 at 10:00am — 25 Comments
मैं लिखा करता हूँ
भाव की ध्वनियों को;
उतारता हूँ
नए शब्दों में
नए रूपों में।
रस, छंद, अलंकार
तुक, अतुक
सब समाहित हो जाते हैं
अनायास।
ये ध्वनि के गुण हैं;
शब्द के श्रंगार।
इन्हें खोजने नहीं जाता।
मुझे तो खोज है
उस सत्य की
जिसके कारण
मैं सब कुछ होते हुए भी
कुछ नहीं
और कुछ न होते हुए भी
सब कुछ हो जाता हूँ।
शायद किसी दिन
किसी…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 18, 2013 at 3:00pm — 20 Comments
कभी यूं ही बैठकर सोचते हुए
कल्पना की असीम गहराइयों में
डूबते उतराते
भाव ध्वनियां बनकर
खुद रूप लेने लगते हैं
शब्द का।
शब्द बोलते हैं
एक भाषा
और फिर
गडमड हो जाते हैं
एक दूसरे में।
रह जाती है
एक ध्वनि
एक स्वर
वह जो
परम भाव है
परम ध्वनि
परम अक्षर!
जहां से उपजे
वहीं समा गए
परम शून्य में।
निर्विकार शान्ति!
भाव…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 15, 2013 at 10:00pm — 31 Comments
मंद हवा की
लहरों पर बैठ
आकाश ने
हाथों में लिया
सितारों का अक्षत,
अरूणोदय का कुमकुम,
ओस की बूंदें,
बाग से
पुष्प, घास
और तिरोहित कर दी
रात
क्षितिज में।
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on July 11, 2013 at 6:30pm — 30 Comments
क्या सुनना है
क्या कहना है
जीना औ मरना है
क्या पाया है
जो खोना है
दिन ही बस गिनना है
सपने सारे
सूखा मारे
घिस घिस कर चलना है
देह को बस गलना है
मन से हारा
पर हूँ जीता
रो रो कर हॅंसना है
किसको रोएं
पीर सुनाएं
सबका ही कहना है
बस जीवन जीना है
खेत को सींचें
अंकुर फूटें
बस इंतजार करना है
रात हुई थी
सुबह भी होगी
सोए, अब…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 11, 2013 at 6:30am — 20 Comments
मन भौंरे सा आकुल है
तुम चंपा का फूल हुई
मैं चकोर सा तकता हूँ
तुम चंदा सी दूर हूई
जब पतझड़ में मेघ दिखा
तब यह पत्ता अकुलाया
ज्यों टूटा वो डाली से
हवा उसे ले दूर उड़ी
तपती बंजर धरती सा
बूँद बूँद को मन तरसा
जितना चलकर आता हूँ
यह मरीचिका खूब छली
सपन सरीखा है छलता
भान क्षितिज का यह मेरा
पनघट पर जल भरने जो
लाई गागर, थी फूटी
- बृजेश…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 8, 2013 at 10:30pm — 12 Comments
शहर के बड़े चैराहे पर
जो बड़ी दीवार है
उसके पास से गुजरते हुए
अक्सर मन होता है
लिख दूं उस पर
‘लोकतंत्र’
लाल स्याही से।
एक बड़ा लाल चमकता हुआ
‘लोकतंत्र’
जो दूर से साफ चमके।
जब भी होता हूं वहां
कांव कांव करता एक कौआ
आ बैठता है दीवार पर
मानो आहवाहन करता हो
‘आंव, आंव
लिख दो इस दीवार पर
जग जाएं पशु, पक्षी, लोग
ढूंढकर निकाली जा सके
फाइलों और योजनाओं…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on July 4, 2013 at 8:00pm — 27 Comments
आज
बहुत दिनों बाद आया गांव
अपना गांव
जहां हुआ करते थे
महुआ, कटहल, आम
एक बाग भी।
खेलते थे गुल्ली डंडा
कभी कभी क्रिकेट भी।
अब वहां बाग नहीं…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 6, 2013 at 10:32pm — 40 Comments
आदरणीया कल्पना जी के सुझाव के अनुसार रचना में सुधार का प्रयास किया है। कृपया आप सुधी जन इसे एक बार फिर देखने का कष्ट करें।
2122, 2122, 2122, 212
चांदनी भी धूप जैसी रात भर चुभती रही
याद जलती सी शमा बन देह में घुलती रही
सह रहे थे तीर कितने वक्त से लड़ते…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 2, 2013 at 7:30pm — 54 Comments
14 पंक्तियां, 24 मात्रायें
तीन बंद (Stanza)
पहले व दूसरे बंद में 4 पंक्तियां
पहली और चौथी पंक्ति तुकान्त
दूसरी व तीसरी पंक्ति तुकान्त
तीसरे बंद में 6 पंक्तियां
पहली और चौथी तुकान्त…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on May 23, 2013 at 3:30pm — 23 Comments
14 पंक्तियां
पहली, तीसरी व दूसरी, चौथी तुकान्त का क्रम
तेरहवी व चौदहवीं पंक्ति तुकान्त
साढ़े तीन का पद
जब जब सूरज की किरनें पूरब में चमकी
जगत में छाया गहन तिमिर तब तब छंटता
लेकिन अंधियारा…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on May 16, 2013 at 11:30pm — 21 Comments
चांद सितारे
चुप से हैं।
रात
घनेरी छाई है।।
तेज घनी
दुपहरिया में
अब अंगार बरसते हैं।
तपती
बंजर धरती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on May 13, 2013 at 6:00pm — 32 Comments
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