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मन भौंरे सा आकुल है

तुम चंपा का फूल हुई

मैं चकोर सा तकता हूँ

तुम चंदा सी दूर हूई

 

जब पतझड़ में मेघ दिखा

तब यह पत्ता अकुलाया

ज्यों टूटा वो डाली से

हवा उसे ले दूर उड़ी

 

तपती बंजर धरती सा

बूँद बूँद को मन तरसा

जितना चलकर आता हूँ

यह मरीचिका खूब छली

 

सपन सरीखा है छलता

भान क्षितिज का यह मेरा

पनघट पर जल भरने जो

लाई गागर, थी फूटी

              - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बृजेश नीरज on July 10, 2013 at 6:43pm

आदरणीय अरून भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 10, 2013 at 6:42pm

आदरणीय राम भाई आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on July 10, 2013 at 6:41pm

आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार! 

Comment by बृजेश नीरज on July 10, 2013 at 6:39pm

आदरणीय केवल जी आपका हार्दिक आभार!

सर्वप्रथम आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं कि रचनाकार ने क्या कहने का प्रयास किया, यह समझने के बाद ही संशोधन का सुझाव उचित होता है। रचना में जो भी शब्द हैं वो उचित हैं और अपने अर्थों में ही प्रयोग किए गए हैं। मैंने टाइप करने में कोई गलती नहीं की है। रचना लिखने के बाद भी कई बार पढ़ी, उचित संशोधन करने, गेयता को जांचने के बाद ही इसे टाइप किया और टाइप करने के बाद भी इसे फिर जांचा।

//तुम चंपा का फूल हुई.......तुम चंपा सी फूल हुई//

चंपा के फूल और भौंरे के संबंधों की जानकारी है क्या आपको? प्रेमिका ‘चंपा सी फूल’ नहीं हुई वरना प्रेमी के लिए प्रेमिका ‘चंपा के फूल’ जैसी हो गयी है।

//जब पतझड़ में मेघ दिखा......जब पतझड़ का शोर हुआ//..मेघ?//

क्यों भाई यहां ‘शोर’ क्यों मचाना? ‘पतझड़’ के मौसम में आसमान में यदि ‘बादल’ का टुकड़ा दिख जाए तो कैसा लगता है? आपके सुझाव की बात करें तो ‘पतझड़’ का कौन सा ‘शोर’ सुना आपने?

//तपती बंजर धरती सा........तपती बंजर धरती.... सी या यह?//

क्यों यहां ‘सी’ क्यों? ‘सा’ का प्रयोग किसके लिए किया गया है? यह देखा आपने। ‘मन’ के लिए और ‘मन’ पुल्लिंग होता है।

//बूँद बूँद को मन तरसा.......बूँद बूँद को कण्ठ रूषा//

प्रेमी के मन को प्रेम की बूंदों की प्यास है। किसी रेगिस्तान में वह प्यास का मारा जल नहीं खोजता फिर रहा जो कण्ठ रूंधा जा रहा हो।

//भान क्षितिज का यह मेरा.....सूरज भान सिंह..या मेघ...गेयता अस्पष्ट है।//

ये ‘सूरज भान सिंह’ कौन है? ‘मेघ’ कहां से आ गया? ‘क्षितिज’ वह स्थान होता है जहां धरती और आकाश के मिलने का एहसास (भान) होता है वही प्रेमी को हो रहा है।

//प्रथम बंद अप्रतिम लाजवाब। शेष गेयता भंग।//

 

भाई जी मैं कोई गायक नहीं हूं। फिर भी रचनायें जिस तरह से गाकर लिखता हूं उसी तरह गाकर इस रचना को भी लिखा था। मुझे गेयता में दिक्कत नहीं महसूस हुई थी। शेष आपको यदि लग रही है तो रचना में जो शब्द प्रयोग किए गए हैं उन्हीं शब्दों के साथ गेयता हेतु संशोधन सुझाएं!

//तुकांत तीन प्रकार के होते है।
1- मानकी / जानकी...उत्तम।
2- ध्याइये / गाइये....मध्यम।
3- देखिये / चाहिये....निकृष्ट।// 

तुकांत के विषय में जो आपने नियम लिखा है वह किस नियमावली से लिया गया है। अपनी पिछली टिप्पणी में मैंने अपना पक्ष रखा था यदि उन पर भी कुछ बोले होते तो अच्छा रहता। फिर भी कुछ उदाहरण आपके सामने रखता हूं।

सर्वप्रथम आपकी ही हाल की रचना के तुकांत आपके सामने प्रस्तुत हैं। ये किस श्रेणी में हैं? निकृष्ट के बाद तो कोई श्रेणी होती नहीं। भाई जी, आप जिस नियम को दूसरे को बता रहे हैं उसका पालन स्वयं भी तो करें।

//नृत्य उर्वशी
रम्भा करती//

//इठलाती औ
बलखाती ज्यों//

रामचरितमानस से कुछ उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। इनके तुकांत के विषय में भी मार्गदर्शन यदि आप प्रदान कर दे ंतो अच्छा रहेगा।

1- रामंकामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं

योगीन्द्रज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्

मायातीतं सुरेशं खलवध निरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं

वन्दे कन्दावदात्तं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।।

2- यो ददाति सतां शम्भुः कैवन्यमपि दुर्लभम्

खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे।।

3- गयउ सभी दरबार तब सुमिरि राम पद कंज

सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज।।

4- नृप अभिमान मोह बस किबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा।।

5- सुंदर सुजान कृपानिधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

   सो एक राम अकाम हित निबानप्रद सम आन को।।

6- पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं

मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।

श्री मद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये

ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः।।

इन उदाहरणों को देखते हुए एक बार फिर तुकांत पर मार्गदर्शन प्रदान करने का कष्ट करें।

मैंने अपनी स्थिति स्पष्ट की है। यदि उस पर ध्यान देते हुए रचना पर एक बार फिर नजर डाल लें और मार्गदर्शन प्रदान करें तो आभारी रहूंगा।

आपका एक बार फिर हार्दिक आभार!

सादर!

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 10, 2013 at 5:26pm

आदरणीय बृजेश भाई जी मुझे नवगीत की तकनीकी विधा का ज्ञान नहीं इस हेतु उस पर कुछ नहीं कह सकूँगा, रचना का भाव मुझे बेहद पसंद आया, इस हेतु मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by ram shiromani pathak on July 10, 2013 at 5:22pm

सुंदर रचना हुई है आदरणीय बृजेश भाई जी बहुत बधाई इस रचना पर, सादर

Comment by coontee mukerji on July 10, 2013 at 1:47pm

बृजेश जी, इस दर्पण में नया चेहरा किसका का है...कहीं मैं किसी और का ब्लॉग तो नहीं देख रही. .....कभी कभी ऐसा भी होता हैजब एंग्री मेंन.....खैर..कवि का सौम्य रूप बहुत अच्छा लगा.

सादर

कुंती

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2013 at 7:55am

आ0 बृजेश भाई जी, आप भी चूक गए!..सम्मोहन का जादू..?

मन भौंरे सा आकुल है
तुम चंपा का फूल हुई.......तुम चंपा सी फूल हुई//
मैं चकोर सा तकता हूँ
तुम चंदा सी दूर हूई

जब पतझड़ में मेघ दिखा......जब पतझड़ का शोर हुआ//..मेघ?
तब यह पत्ता अकुलाया
ज्यों टूटा वो डाली से
हवा उसे ले दूर उड़ी

तपती बंजर धरती सा........तपती बंजर धरती.... सी या यह?
बूँद बूँद को मन तरसा.......बूँद बूँद को कण्ठ रूषा
जितना चलकर आता हूँ
यह मरीचिका खूब छली

सपन सरीखा है छलता
भान क्षितिज का यह मेरा.....सूरज भान सिंह..या मेघ...गेयता अस्पष्ट है भाई जी।
पनघट पर जल भरने जो
लाई गागर, थी फूटी
........................प्रथम बंद अप्रतिम लाजवाब। शेष गेयता भंग।


भाई जी तुकांत तीन प्रकार के होते है।
1- मानकी / जानकी...उत्तम।
2- ध्याइये / गाइये....मध्यम।
3- देखिये / चाहिये....निकृष्ट।
...............................................बहुत-बहुत शुभकामनाएं। सादर,

Comment by बृजेश नीरज on July 9, 2013 at 8:09pm

आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार! आज बहुत दिनों बाद मेरी रचना को आपका आशीर्वाद मिला लेकिन अफसोस रहा कि मेरी रचना आपको संतुष्ट न कर सकी।

//मन शंकित है मेरा, कि रचना नवगीत की जमीन पर है।//

आदरणीया मेरे हिसाब से तो नवगीत की ही जमीन की तलाश थी इस रचना को। मिली या नहीं मिली, यह आप और मंच के सभी विद्वजन तय कर दें।

//नवगीत में गीत की तरह मुखड़ा होता है, जो आपकी रचना से गायब है//

आदरणीया नवगीत क्या गीत, लोकगीत, प्रगीत सभी में मुखड़ा होता है। मैंने पहला बंद यही सोचकर लिखा था कि यह मुखड़ा होगा लेकिन अफसोस कि कुछ कमी रह गयी जिससे वह मुखड़ा जैसा नहीं दिख रहा है। कृपया स्पष्ट करें कि मुखड़ा कैसा होना चाहिए? 

//नवगीत में एक स्थायी होता है, जो हर बंद के आखिरी पद के तुक में होता है,//

आदरणीया यही सोचा था कि मुखड़े से ही स्थायी ले लिया जाएगा लेकिन जब वही नही ंतो स्थाई के लिए भी सोचना ही होगा।

रही बात तुकांत की तो आदरणीया इस रचना में मैंने ‘ई’ को तुकांत रखने का प्रयास किया था। आप एक बार देख लें यदि त्रुटि हो तो अवश्य सुझाव दें कि क्या संशोधन किया जा सकता है।

वैसे तुकांत को लेकर मेरी समझ अत्यंत सीमित है। मैं अभी तक तुकांत के नियमों को ठीक जान नहीं पाया। अभी तक जो समझ पाया हूं उसका जिक्र यहां जरूर करना चाहूंगा। तुकांत का कान्सेप्ट छन्दों से आया है।

दुर्गाचार्य ने निरूक्त के वृत्ति में लिखा है कि छन्द के बिना वाणी उच्चरित नहीं होती। ‘नाच्छन्दसि वागुच्चरित’।

भरतमुनि भी छन्द से रहित शब्द को स्वीकार नहीं करते। ‘छन्दोहीनो न शब्दोऽस्ति न छन्दः शब्दवर्जितम्’।

कात्यायानमुनि ने भी कहा है कि वेद का ऐसा कोई मन्त्र नहीं है, जो छन्दों के माध्यम से न बना हो। फलतः यजुर्वेद के मन्त्र भी जो गद्यात्मक हैं, वे छन्दों से रहित नहीं हैं।

फिर यह तुकांतता का प्रश्न बार बार सुरसा की तरह रचना को निगलने क्यों और किस आधार पर खड़ा हो जाता है। जबकि किसी भी शास्त्र या नियम संहिता में तुकांत को लेकर कोई दिशा निर्देश नहीं हैं। न ही यह जिक्र है कि इस शब्द को तुकांत के रूप में प्रयोग कर सकते हैं इसे नहीं। यहां ओबीओ पर भी जो लेख हैं उसमें भी इस विषय को कोई जिक्र नहीं है।

संस्कृत साहित्य में छन्द के व्यापक भाव को देखते हुए तुकांत को लेकर कोई विशेष आग्रह नहीं रहा। यूं भी छन्द की व्युत्पत्ति ‘छद’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘आवरण’। छन्द भाव के आवरण हैं।

हिन्दी साहित्य के लौकिक या सनातनी छंदों में भी तुकांत को लेकर कोई जबरदस्ती का आग्रह नहीं रहा। यूं भी पदांत में समतुकांतता से रचना की सरसता में वृद्धि होती है और गेयता में लाभ मिलता है। तुकांत को लेकर कोई शिल्पगत आग्रह कभी नहीं रहा और न है। कुछ परंपराएं तुकांत को लेकर जबरन थोपने की कोशिश भर की जाती है। तुकांत को लेकर अभिनव प्रयोग हुए हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘प्रियप्रवास’ की रचना अतुकांत छंद शैली में ही की है। तुकांत को लेकर कुछ प्रयोग उदाहरण के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।

1- निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।

  करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।

2- बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुं कुबेर ते

सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे।।

3- एक तो सुघर लड़कैया के, दूसरे देवी कै वरदान। 
नैन सनीचर है ऊदल कै, औ बेह्फैया बसै लिलार।।

तुकांत को लेकर मेरी इतनी ही समझ भर है जिसे आपके सामने रखने का प्रयास किया है।

आगे, आपसे और मंच के सभी विद्वजनों से अनुरोध है कि इस विषय पर मार्गदर्शन प्रदान करके मुझे अनुग्रहीत करें।

सादर!

Comment by वेदिका on July 9, 2013 at 6:27pm

आदरणीय बृजेश जी! 

आपकी रचना के भाव बहुत ही प्यारे है, नवीनता का भराव मुझे दीखता है आपकी रचना में, सुघड़ता से गढ़ी गयी रचना पर बहुत सी बधाई आपको! किन्तु मन शंकित है मेरा, कि रचना नवगीत की जमीन पर है। आपने नवगीत के शिल्प के अनुसार बिम्ब का प्रयोग तो किया है   

यथा // तुम चम्पा का फूल हुयीं //,,

//जब यह पत्ता कुम्हलाया है// इसमें तो आपने बड़े ही खूबसूरती से मन को पतझड़ के पत्ते सा बना के, दूर विरह की हवा में उड़ा दिया।।

किंचित प्रश्न अब भी है या मेरा संशय जो भी कह लीजिये।

१)  नवगीत में गीत की तरह मुखड़ा होता है, जो आपकी रचना से गायब है,    

२)  नवगीत में एक स्थायी होता है, जो हर बंद के आखिरी पद के तुक में होता है,

आपने आपकी रचना में उपमान का प्रयोग अधिकतर किया है, और बिम्ब का कम ही, अगर मेरे विचार से उपमान को बिम्ब से बदल देते है तो नवगीत और भी निखर के आएगा!

शेष आपसे मार्गदर्शन की प्रतीक्षा में!

सादर गीतिका 'वेदिका'       

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