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Annapurna bajpai's Blog – August 2013 Archive (10)

शब्द नहीं आते है ( कविता )

शब्द नहीं आते है

 

देख दुर्दशा   

सुन कर व्यथा

गूँजता करुण क्रंदन  

न पिघला मानव मन

कुछ कहने को शब्द नहीं आते है ....

लुट रही अस्मिता

मिट रहा सुहाग

छिन रहे माँओ के लाल

रक्तरंजित हो रही धरा

व्यथा सुनाने को शब्द नहीं आते है .......

जन्मांध न होकर भी जो

बन चुके धृतराष्ट्र

हलक तक शुष्क हो चला  

जिह्वा चिपक गई तालु से

पुकार लगाने को शब्द नहीं आते हैं…

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Added by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 12:30pm — 16 Comments

गंदी नाली के कीड़े ( लघु कथा )

बड़े साहब की गाड़ी जैसे ही चौराहे पर सिग्नल के लिए रुकी एक चौदह पंद्रह वर्षीय बालक हाथ मे कपड़े का टुकड़ा लिए उनकी गाड़ी की तरफ लपका और फटाफट शीशे चमकाने लगा । शायद ये लोग कुछ पैसों की खातिर अपनी जान को जोखिम मे डाले फिरते है । क्या करे पेट की आग और गरीबी की मार कुछ भी करवाती है । बड़े साहब ने नई मर्सिडीज़ खरीदी थी उस पर उस बच्चे के गंदे हाथ देख तिलमिला गए , उतरे और एक झन्नाटे दार थप्पड़ उसके कोमल गाल पर जड़ दिया , - “ यू रासकल्स ! गंदी नाली के कीड़े ! तेरी हिम्मत कैसे हुई गाड़ी को हाथ लगाने की ।”…

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Added by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 12:00pm — 30 Comments

क्षमा दान ( लघु कथा )

रात के बारह बज रहे थे , रोहित नशे हालत मे घर मे दाखिल हुआ उसकी भी पत्नी साथ मे ही थी । पिता दुर्गा प्रसाद कडक कर बोले – “ ये क्या तरीका है घर मे आने का , कैसे बाप हो तुम जिसको बच्चों का भी ख्याल नहीं । और ये तुम्हारी पत्नी , इसको भी कोई कष्ट नहीं ।”  रोहित तमतमा उठा न जाने क्या क्या उनको कह डाला । वे बेटे के पलटवार के लिए तैयार न थे वह भी बहू और बच्चों के सामने । सिर झुकाये सुनते रहे कुछ बोल नहीं पाये । एक वाक्य ही उन्होने अपनी पत्नी से कहा ,” हमारी परवरिश मे खोट है । ”  वे कमरे मे जाकर…

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Added by annapurna bajpai on August 29, 2013 at 12:34pm — 24 Comments

बहू बनाम बेटी ( लघु कथा )

बहू बनाम बेटी

 

राधा जी घर मे अकेली थी , बेटा बहू के साथ उसकी बीमार माँ को देखने चला गया था । उसने कुछ पूछा भी नहीं बस आकार बोला – माँ हम लोग जरा कृतिका की माँ को देखने जा रहे है शाम तक आ जाएँगे । आपका खाना कृतिका ने टेबल पर लगा दिया है टाइम पर खा लेना , तुम्हारी दवाएं भी वही रखी है खा लेना भूलना मत ,और दरवाजा अच्छे से बंद कर लेना ।” कहता हुआ वो कृतिका के साथ बाहर निकल गया । पर बहू ने एक शब्द भी न कहा । “क्या वो कहती तो क्या मै मना कर देती । बहुयेँ कभी बेटी नहीं बन सकती आखिर…

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Added by annapurna bajpai on August 26, 2013 at 12:30pm — 21 Comments

" अम्मा ने कहा था"( लघु कथा )

उषा आज फिर देर से आई । मै कुछ पूछने को लपकी ही थी कि उसका चेहरा देख रुक गई, वह सिर पर पल्लू रखे चेहरे को छुपाने का प्रयास कर रही थी । वह अंदर आई और चुपचाप बर्तन उठाये और धोने बैठ गई । उसकी एक  आँख पूरी काली थी चेहरे पर और गर्दन पर कई निशान थे । कुछ न पूछना ही मुझे ठीक लगा । काम निपटा कर वह अंदर आई । मुझसे रहा न गया मैंने पूंछ ही लिया – “उषा क्या बात है आज फिर तुम्हारे पति ने तुम्हें .......” बात पूरी भी न हो पाई कि वह बीच मे ही काट कर बोली – “ नहीं भाभी ये तो देवता का परसाद है ,…

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Added by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 6:00pm — 36 Comments

वह बरगद !

वह पुराना बरगद

कहते है वह गवाह

उन शूर वीरों का

जो मर मिटे देश पर

इसकी आन औ शान

बचाने की खातिर

जाने कितने यूं ही

लटका दिये गये उन

शाखों पर जो देती

थीं दुलार प्यार व

हरे पत्तों की ठंडी

छाँव, ताजी हवा तब  

वह बरगद जवां था

मजबूती से खड़ा हो

देखता सोचता  था

अधर्मी पापियों एक

दिन वो भी आयेगा

जब तू भी यूं ही

मिटाया जाएगा

मै यहाँ खड़ा हो

देखूँगा तेरा भी…

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Added by annapurna bajpai on August 18, 2013 at 6:53pm — 14 Comments

भाई बहन के प्यार का प्रतीक है रक्षाबंधन ( लेख - कुछ अदृष्ट्य तथ्य )

मनुष्य स्वभावतः उत्सव प्रिय एवं प्रकृति प्रेमी है । ग्रीष्म ऋतु के अवसान के पश्चात जब आषाढ़ और सावन आकाश मे काले काले घुमड़ते बादल झमझमाती बारिश लेकर आते है तब शुष्क और तपती हुई धरा धीरे धीरे तृप्त होती जाती है । सावन का महीना लगते ही हरियाली हरियाली ही दिखाई देती है । इस ऋतु परिवर्तन पर प्रकृति की मन भावन सुषमा एवं सुंदर परिवेश को पाकर मानव मन आन्नादित हो उठता है और ऋतुओं के अनुसार पर्व एवं त्योहार भी आरंभ हो जाते है । सावन के महीने मे ही तीज , नागपंचमी और सावन का अंत श्रावणी पूर्णिमा यानि…

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Added by annapurna bajpai on August 14, 2013 at 7:30pm — 1 Comment

जो मै नेता होती ( हास्य कविता )

यदि होती नेता मै  

सिंहासन पर बैठती

अगल बगल प्यादे

लंबी मोटर कार होती

तिजोरी भर धन होता

यहाँ कुछ वहाँ होता  

षटरस व्यंजन खाती

गिनती एक न करती

देना तो दूर की बात

सब छीन ले आती

भूखे कितने भी भूखे

दो रोटी की थाली

बनवाती संग मे

चावल , कटोरी दाल

बोनस कह कद्दू देती

उन्नति का ठेंगा

पड़े रहते सब नेता

जो बिचारे फिरते है

वोट मांगते रहते है

अंत मे मौन रहे साध

आँख…

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Added by annapurna bajpai on August 12, 2013 at 10:30pm — 15 Comments

साहित्य धर्मिता

साहित्य अपने आप मे एक बहुत बड़ा विषय है इस पर जितनी भी चर्चा की जाए कम ही होगी । साहित्य का शाब्दिक अर्थ स+ हित अर्थात हित के साथ या लोक हित मे जो भी लिखा जाय या रचा जाए वह साहित्य होता है। और धर्मिता का शाब्दिक अर्थ है ध + रम यहाँ ध अक्षर संस्कृत के धृ धातु का विक्षिन्न रूप है जिसका अर्थ है धारण करना और रम भी संस्कृत के रम् धातु  से उद्भासित है जिसका अर्थ है रम जाना या तल्लीन हो जाना । इसी को धर्मिता कहते हैं । लोक हित को धारण कर उसी मे रम जाना ये हुई साहित्य धर्मिता। अब प्रश्न यहाँ यह उठता…

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Added by annapurna bajpai on August 5, 2013 at 6:55pm — 4 Comments

पीड़ा

प्रिय ! कुछ अव्यक्त पीड़ा

तुम समझ पाते

यदि तुमसे कह दूँ

ये मेरा प्रेम न होगा

अन्तर्मन कर रहा यह

सस्वर करुण पुकार

तुम से छिपा कर

कुछ जख्म सी लिए हैं

कुछ अभी भी बाकी है

स्नेह मरहम रख देते

उन जख्मों पर

सपनों को सँजो लेते

मिल कर बुने थे जो

बनाने को नवनीड़

सुनीड़ दुर्लभ सा

मांग लूँ तुमसे

ये मेरा प्रेम न होगा

प्रिय ! कुछ अव्यकत पीड़ा ......... अन्नपूर्णा बाजपेई

 

मौलिक…

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Added by annapurna bajpai on August 1, 2013 at 7:18pm — 10 Comments

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