साहित्य अपने आप मे एक बहुत बड़ा विषय है इस पर जितनी भी चर्चा की जाए कम ही होगी । साहित्य का शाब्दिक अर्थ स+ हित अर्थात हित के साथ या लोक हित मे जो भी लिखा जाय या रचा जाए वह साहित्य होता है। और धर्मिता का शाब्दिक अर्थ है ध + रम यहाँ ध अक्षर संस्कृत के धृ धातु का विक्षिन्न रूप है जिसका अर्थ है धारण करना और रम भी संस्कृत के रम् धातु से उद्भासित है जिसका अर्थ है रम जाना या तल्लीन हो जाना । इसी को धर्मिता कहते हैं । लोक हित को धारण कर उसी मे रम जाना ये हुई साहित्य धर्मिता। अब प्रश्न यहाँ यह उठता है कि सहित शब्द तो अपने आप मे पूर्ण नहीं हुआ । यहाँ किसके सहित लगाने पर जो उत्तर हमे मिलेगा वह अपने आप मे पूर्ण हो जाएगा । जैसे - हिन्दी साहित्य , धार्मिक साहित्य , संगीत साहित्य , आयुर्वेद साहित्य, अँग्रेजी साहित्य , पंजाबी साहित्य , नेपाली साहित्य, मैथिली साहित्य इत्यादि जितने अंचल उतने साहित्य । इस प्रकार हम देखते है कि साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक है ।
देखा जाए तो साहित्य की उत्पत्ति हमारे भारत मे ही हुई । इस विषय पर गहन चिंतन व मनन करने वाले प्रबुद्ध जनों के द्वारा बहुत कुछ लिखा गया है जिसको समझने के लिए थोड़ा आगे चलना होगा । हमारे भारत मे साहित्य का भंडार भरा था । जिसको समय दर समय विभिन्न आक्रमण करियों ने लूटा छीना और आज स्वयम वे खुद को बहुत बड़े साहित्यकार बताते हुये हमारी ही साहित्यिक धरोहर का पूरा लाभ उठाते हुये दुनिया मे राज कर रहे हैं । तक्षशिला , नालन्दा इस बात का जीता जागता उदाहरण है । यहाँ पर हमारे विभिन्न साहित्यों का सृजन किया गया था । बड़े बड़े मनीषियों ने बड़े जतन से इन साहित्यों की रचना की थी । और उनके लिखे गए साहित्य को सहेजने का कम इन विश्वविद्यालयों मे किया जा रहा था । अंग्रेजों द्वारा इन साहियों को चुराया गया जब नहीं चुरा पाये तो आग लगा दी, कई महीनों तक लगातार जलती रही अग्नि मे जाने कितना साहित्य स्वाहा हो गया । जिसके अवशेष अब हमे उनकी क्रूर मानसिकता का दर्शन कराते है । आज हमारे पास न तो वे मनीषी गण है और न उनका साहित्य ।
परंतु आज भी हमारी धरा ऐसे सुपत्रों से सिक्त है यहाँ आज भी साहित्यों का सृजन होता ही रहता है । कई ऐसे माँ भारती के सपूत एवं नारियां हुई हैं जिन्होने युगों की रचना की है। उनका मुख्य उद्देश्य होता था कि जो कुछ भी वे लिखे वो सत्य के सहित हो और जन मानस को जागरूक करने वाला हो । वे जो भी रचना करते थे वो एक युग के रूप मे जाना गया जैसे भारतेन्दु युग , द्विवेदी युग इसी क्रम मे तुलसीदास जी एव सूरदास जी , मीरा जी , इन सभी का साकार ब्रम्ह का दर्शन कराते हुये आशावादी युग की रचना की । आधुनिक युग की मीरा – महादेवी वर्मा जी , निराला जी , पंत जी , दिनकर जी, जयशंकर प्रसाद जी का साहित्य मे अविस्मरणीय योगदान है जिसमे प्रसाद युग जयशंकर जी नाम से चला । ऐसे कई साहित्य कार हैं जिनके योगदान से वसुंधरा सिंचित है । ये तो हिन्दी साहित्य जगत के चंद नाम है । ऐसे ही नामों से भरा पड़ा है हमारा साहित्य का संसार । नए साहित्यों की रचना के साथ साथ आज अवश्यकता इस बात की भी है उन पौराणिक साहित्य का भी सृजन किया जाय । जिसके लिए अथक प्रयासों की अन्नत आवश्यकता है ।
पूर्णतया अप्रकाशित एवं मौलिक
Comment
आ० केवल भाई जी आपका कथन सही है । मेरा प्रयास भी यही बताने का है । सादर ।
आ0 अन्नपूर्णा जी, साहित्य धर्मिता वास्तव में एक श्रमसाध्य एवं जीवटता का कार्य है। आपने जो भी इतिहास, गौरव और प्रभावों का उल्लेख किया वह सर्वथा उचित एवं सत्य ही है। विस्तृत और संकीर्णता से परे इसका एक पहलू और भी है- जब जब समाज हित में मनीषियों ने देखा, सुना और अनुभूति करके उसे मानक मानदण्डो अर्थात व्याकरण, रस, छन्द, अलंकार आदि के अनुरूप भाषा को सुसंगठित करके प्रस्तुत किया है, तब तब एक नये युग का जन्म हुआ है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आज हम क्या लिख रहे हैं? क्यों लिख रहे हैं, और किसके लिए लिख रहे हैं, तो हमें अपने साहित्य धर्मिता की विषय वस्तु सहजता से स्पष्ट हो सकेगी।
हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
apka hardik abhar adarniy Aditya ji .
साहित्य से आपने एक नया परिचय करवाया है ! सुन्दर अवम मार्गदर्शक ! हार्दिक बधाई !
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