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ज्वार भाटा (अन्नपूर्णा बाजपेई)

वो हिरनी सी चंचल आंखे

कभी मुसकुराती हुई 

खामोश है अब ...... 

एक ज्वार भाटा आकर  

बहा ले गया है सब ...

  वो रिक्त आंखे

अब नहीं देखती

कोई सपना मधुर

क्योंकि उनसे छीना है

किसी ने हक़

स्वप्न देखने का । 

वे  अब नहीं ताकती

किसी की राह

क्योंकि वे खामोश है

शायद पत्थर हो गई है........ 

किसी ने छीना है 

उनसे जीने की खुशी

उनकी मुस्कुराहट

उनकी चंचलता  

किसी व्याघ्र के

मुंह मे मेमेने के जैसी

वो सहमी सी रहती है

वो मुसकुराती चंचल आँखें ......

 

 अप्रकाशित एवं मौलिक 

यथा संशोधित 

 

 

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Comment by annapurna bajpai on December 27, 2013 at 10:30pm

आदरणीय बृजेश जी एवं आदरणीय सौरभ जी मुझे आप दोनों की टिप्पणी से मार्ग दर्शन मिला , मै ध्यान रखूंगी । आप विदु लोगों का स्नेह मुझे इसी प्रकार टिप्पणी रूप मे मिलता रहे । सादर । 

Comment by annapurna bajpai on December 27, 2013 at 10:23pm

आदरणीय गिरिराज जी , कुंती दीदी , लक्ष्मण जी , जितेंद्र जी ,महिमा जी , नादिर खान जी आप सभी को रचना पसंद करने के लिए हार्दिक आभार । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 27, 2013 at 3:39pm

मैं भाई बृजेश जी के कहे को बार-बार अनुमोदन करना चाहूँगा.
उन्होंने लाख टके (रुपये) की बात कही है.
सादर

Comment by नादिर ख़ान on December 27, 2013 at 12:07am

सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बधाई आदरणीया अन्नपूर्णा जी ।

Comment by MAHIMA SHREE on December 26, 2013 at 7:42pm

एक प्रताड़ित  स्त्री  की अंतर व्यथा को अच्छी अभिवयक्ति दी है आपने .. हार्दिक बधाई आ. अन्नपूर्णा  जी ..सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 26, 2013 at 10:59am

सच! जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते है, दे जाते है केवल सूनापन, इस गहरी प्रभावशाली रचना पर बधाई स्वीकारें आदरणीया अन्नपूर्णा जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 26, 2013 at 6:39am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी ,

रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by coontee mukerji on December 25, 2013 at 9:21pm

रचना के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 25, 2013 at 8:36pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी , सुन्दर भाव पूएण रचना के लिये आपको बधाई ॥

Comment by बृजेश नीरज on December 25, 2013 at 8:16pm

आदरणीया अन्नपूर्णा जी आप रचना लिखकर संतुष्ट हो जाती हैं और उसे प्रकाशित कर देती हैं! हर रचना कुछ समय चाहती है, उसकी सदा इच्छा होती है कि रचनाकार उसे थोड़ा लाड़-दुलार दे! रचना से उसका हक न छीना करें!

इस अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई!

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