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Sheikh Shahzad Usmani's Blog (338)

नूरानी चेहरे ( लघुकथा) _शेख़ शहज़ाद उस्मानी

दंगों और भगदड़ से पीड़ित लोगों को मस्जिद में पनाह देने के बाद मौलवी साहब की आंखें यह देखकर फटी जा रहीं थीं कि औरतों ने स्वयं ही बच्चों की अलग पंक्ति बना दी थी और स्वयं पृथक पंक्तिबद्ध शांतिपूर्वक बैठ गईं थीं। पुरुष भी थोड़ा फासला रखकर पंक्तियों में ऐसे बैठ गए थे जैसे कि मानो नमाज़ अदा कर रहे हों। महिलाओं ने भी मुस्लिम औरतों की तरह पल्लू सिर व छाती पर लेकर वैसी ही मुद्रा बना ली थी। सभी अपने धार्मिक मंत्रोच्चारण कर रहे थे। पंडित जी यह सब देख कर मुस्करा रहे थे। उनको संतोष था कि अब सब ठीक है। मौलवी… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 21, 2016 at 9:50am — 13 Comments

आबोहवा (लघुकथा)

बस स्टैंड पर बस से उतरते ही सुखिया का चेहरा खिल उठा। पिताजी टैक्सी वाले से बात करने लगे, तो उसने टोकते हुए कहा- "नहीं बापू, हम पैदल ही चलेंगे, हम शहर घूमते हुए चलेंगे, सामान भी कोई ज़्यादा नहीं है न!"

" न बेटा, टैक्सी वाले ने बताया है कि मानस भवन तो बहुत दूर है! शहर बाद में घुमा देंगे!"-

पिताजी ने कहा।

फिर दोनों टैक्सी पर सवार हो गए। जैसे ही टैक्सी ने रफ़्तार पकड़ी, सुखिया पहले तो सपनों में खो गया, फिर गाड़ियों की आवाज़ों और होर्न के शोरगुल ने उसे बेचैन कर दिया। पिताजी ने उसे…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 17, 2016 at 10:00pm — 16 Comments

जलेबी बाई और जलेबियां (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

जलेबी चौक पर प्रसिद्ध चाट वाले की दुकान पर कॉलेज की कुछ लड़कियाँ समोसा-कचौड़ी के मज़े लेते हुए बगल की लोकप्रिय दुकान में जलेबियां बनते हुए ग़ौर से देख रहीं थीं।



"क्या देख रही हो बहनों, हमारी-तुम्हारी ही कथा सुनाती हैं जलेबियां!"



"क्या? क्या मतलब?" - एक ख़ूबसूरत चंचल लड़की ने पूछा।



"ये देखो, ये वाली कड़ाही है जलेबी का मायका। यहाँ माँ-बाप की पोटली से निकल कर रूप-रंग और सांचे में ढलकर गरम तेल में तली जाती हैं जलेबियां!" -यह कहकर शहर की मशहूर जलेबी बाई ने कड़ाही में… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 13, 2016 at 8:28am — 7 Comments

कुछ तुम बदलो, कुछ हम (लघुकथा)

एक पारिवारिक फिल्म घर पर ही देखने के बाद दोनों के चेहरे ऐसे मुरझा गये थे, मानो फ़िल्म ने उन्हें आइना दिखाकर शर्मिन्दा कर दिया हो!

कुछ पलों के बाद वह उसके पास जाकर बैठ गया। लम्बी चुप्पी के बाद मन के भाव बह पड़े।

" सच है कि मैं तुम्हें कभी ख़ुश नहीं रख सका, और न ही तुम मुझे!"

वह चौंककर उसकी तरफ़ देखती रही, फिर बोल पड़ी, "मालूम है, बच्चों की वज़ह से तुमने मुझे तलाक़ नहीं दी, वरना..."

"वरना क्या? उस वक़्त मेरी माली हालत अच्छी नहीं थी, मेरी पसंद की कोई दूसरी मुझसे निकाह कैसे…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 14, 2016 at 8:00pm — 9 Comments

इज़्ज़त (लघुकथा)

ट्रेन की बोगी में पाँच मुरझाये चेहरे बाक़ी सवारियों के वार्तालाप को सुनते हुए बातें समझने की कोशिश कर रहे थे। किसान की जवान बेटी बुरी नज़रों से बचने के लिए अपने शरीर को किसी तरह ढांकने की कोशिश कर रही थी। बाक़ी दोनों बच्चे सवारियों की खाने-पीने की वस्तुओं को टकटकी लगाये देख रहे थे। उनकी मां उन्हें सुलाने की कोशिश में नाकाम हो रही थी।

"जब से यह ठेका मिला है, पैसा ही पैसा बरस रहा है, वरना पिछले धंधे में तो बरबाद हो गया था!" एक सवारी ने संतोष की सांस लेते हुए अपने साथी से कहा।

"मेरे बाप…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 7, 2016 at 11:30pm — 7 Comments

डॉक्टर सड्डन (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

मुश्किल से माँ-बाप सालों बाद अपने बेटों से मिलने मुंबई पहुंचे थे। एक के बाद एक पांचों मुंबई में बस गए थे और उनमें से एक खो दिया था। डर लग रहा था कि कहीं ग़लत धंधों में तो नहीं पड़ गये फ़िल्मी दुनिया में दाख़िला पाने के मोह में। दो दिन ही हुये थे माहिम में बड़े बेटे के घर में रुके हुए । बेटे की वास्तविक माली हालत उसकी सेहत और घर देख कर कुछ समझ में नहीं आ रही थी। एक दिन चावल न खाने की बात पर बेटा बाप पर बरस पड़ा।

 "अबे, बुढ़ऊ जो मिल रहा है चुपचाप खा ले, मेरी बीवी के पास इत्ता टाइम नहीं है…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 28, 2016 at 12:00pm — 6 Comments

सूरज के तेवर (लघुकथा) [छंदोत्सव-58 चित्र से प्रेरित] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

अपने दोस्त पेन्टर हबीब की नई पेन्टिंग को अरशद भाई बड़े ग़ौर से देख रहे थे। लाल, धूसर और काले रंगों से बनी पेन्टिंग में नदी के तट पर चिता तैयार करते युवक को और लकड़ियों से सजायी जा रही चिता को स्याह काले रंग से चित्रित किया गया था। लेकिन यह समझ नहीं आ रहा था कि सुरमई से दिख रहे आसमान में लालिमा सी फैलाता सूरज भोर के समय का है या सूर्यास्त के वक़्त का !



"कहाँ उलझ गए अरशद भाई, पेन्टिंग नहीं आयी समझ में?"



"समझ तो गया हूँ, बस यह बता दो हबीब भाई कि यह सूर्योदय का चित्रण है या… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 21, 2016 at 12:02pm — 4 Comments

उतार-चढ़ाव (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

घोर निराशा से घिरे पुत्र को जीवन की सच्चाई बताते हुए पिताजी सीख देने की कोशिश कर रहे थे।

"बेटा, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव से व्यथित मत हो, हर इन्सान के हमसफ़र होते हैं ये सब!"

" लेकिन पिताजी, हमसफ़र के तेवर सबके साथ एक से नहीं होते! स्वाभाविक उतार-चढ़ाव और बनाये गये या थोपे गये उतार-चढ़ाव में ज़मीन आसमान का फर्क है इस स्वार्थी युग में!"- पुत्र ने अपने शैक्षणिक दस्तावेजों की फाइल बंद करते हुए कहा।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 15, 2016 at 9:29am — 8 Comments

लघुकथा (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"लघुकथा" साहित्यिक पत्रिका की वर्षगाँठ समारोह में नये व पुराने लेखकगण, एक दूसरे से रूबरू हुए। इस अवसर पर विशेष रूप से लगायी गई पेंटिंग को सभी ग़ौर से देख रहे थे।



"यह जो लकड़ी की रचना देख रहे हो न, यह दरवाज़ा रूपी एक उत्कृष्ट लघुकथा है, लघुकथा के फ्रेम में विधिवत संयोजित!"- पुराने ने एक नये लेखक को बताते हुए कहा।



"और ये खड़ी पट्टियां और पैबंद से...?"



"ये तीनों खड़ी पट्टियां क्रमशः लघुकथा का आरंभ, मध्य भाग और अंतिम भाग हैं... और वे आड़े से तीनों पैबंद नहीं हैं, वे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 13, 2016 at 11:05pm — 3 Comments

कोहरा (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

खुला दरवाज़ा देख कर वह सीधे अन्दर की ओर जाने लगी।



"शुभ प्रभात! आइये, अब कैसे आना हुआ?"



"भरी दोपहरी में अक्सर ख़ूब सताया है, सोचा ऐसे में इन्हें कुछ राहत दे दूँ! बच्चे तो होंगे न अंदर ?"- धूप ने अभिवादन स्वीकार कर झोपड़ी के दरवाज़े से कहा।



"नहीं, उन्हें भी सबके साथ काम पर जाना होता है भोर होते ही !" - दरवाज़े ने उत्तर दिया।



"इतने घने कोहरे में भी!"



"हाँ, अपने अपने पेट के लिए अपने हिस्से की कमाई के लिये..."



"ओह, यह कोहरा कैसे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 13, 2016 at 8:28am — 10 Comments

लेन-देन की परम्परा [ अतुकांत कविता] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

लेन-देन की परम्परा

नीचे से ऊपर तक

छोटों से बड़ों तक



ऊपरवाला भी अब करता

व्यवसाय सी प्रक्रिया

कभी देता, कभी लेता

हिसाब बराबर सब करता

संकेतों को कौन समझता?



इन्सान ही तो कर्ता-धर्ता

दूर-तंत्र से नचता

विकास संग विनाश का मेला

रंगीन, संगीन, ग़मगीन

कोई बदनाम, कोई नामचीन



गति, प्रगति, मति या अति में

यति करती स्वत: प्रकृति

सृष्टि की अजब नियति

अवसरवादिता की प्रखर

मानव जैसी चतुर

लेन-देन की… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 9, 2016 at 9:18am — 8 Comments

वेदना और तृप्ति (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सही कहा जाता है कि दिन सभी के बदलते हैं।"

"कहाँ से कहाँ-कहाँ पहुँच गए थे! क्या से क्या हो गए थे हम!"

"आख़िर अब साथ साथ यहाँ पहुँच ही गए!"

"कितना सुकून मिलता है यहाँ आकर, सारी हसरतें पूरी हो जाती हैं, है न! "

'रिसेप्शन (प्रीति-भोज)' के शानदार काउन्टरों के चमकते डिशों से वेस्टबिन तक पहुँची जूठनें अब भूखे भिखारियों और बाल-मज़दूरों की क्षुधा शांत कर रहीं थीं।

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 8:17pm — 4 Comments

कायम जड़ें (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"सर, आज इसको भी आतंकवादियों ने निपटा दिया!"

"देखो, शायद जान बाक़ी है इसमें!"

"सर, इसका तो पूरा धड़ उड़ा दिया हत्यारों ने!"

"लेकिन पैर हैं, जड़ें कायम हैं, आहार मिलेगा तो शायद जी उठे!"

बच्चे पुलिस-पुलिस और सी.आइ.डी. का खेल खेलते हुए पेड़ के बचे ठूंठ पर ऐसा बोल गये जैसे कि किसी धर्म और संस्कृति पर बात हुई हो!

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 9:25am — 7 Comments

पोजीटिव टाइम (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

खिड़की से झांकते हुए बाहर का दृश्य आज पति-पत्नी दोनों को कुछ संतुष्टि दे रहा था। आज दोनों बच्चे स्वेच्छा से कुछ कर पा रहे थे।



" देखो, हम दोनों टीचर होते हुए भी बच्चों को कभी सकारात्मक समय नहीं देते ! उनको प्रकृति के समीप रहने दो, डांटना- फटकारना नहीं!"



"हां, सही कह रहे हैं आप! आज यहाँ पर उन्हें जानने दो कि कैसे पानी सींचते हैं? कैसे पलाश , गेंदे के फूल खिलकर यूँ झर जाते हैं! सूखे पत्तों का क्या हश्र होता है!"



"बांस कैसे पैदा होता है, ताड़ का पेड़ क्या होता है,… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 30, 2016 at 2:23pm — 5 Comments

रंग बदलती दुनिया (लघुकथा) ['रंग' संदर्भित- 2] /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

जितने मुँह उतनी बातें । ख़ुशख़बरी सुनकर जिन लोगों ने असीम बधाइयां और शुभकामनाएँ व्यक्त कीं थीं, अब उनकी अभिव्यक्तियां रंग बदलने लगी थीं।



कुछ ईर्ष्या के, तो कुछ शंकाओं के, और कुछ हीन भावनाओं के , तो कुछ भविष्य की योजनाओं या 'जुगाड़' जैसे लोभ के रंगों से रंगे बोल सुनायी दे रहे थे। जिन्होंने मीठा मुँह कराया था, अब वे कुछ मीठे सपने देखने लगे थे।



मामला यह था कि एक मामूली रिक्शे वाले की चौथी संतान, इकलौता बेटा आइ. ए. एस. अफ़सर बन गया था।

वह माँ-बाप, बहिनों, दोस्तों,… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 29, 2016 at 7:25pm — 2 Comments

अक्षम्य कर्म (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"अक्षम्य कर्म"- (लघुकथा)



पड़ोसन के लिए बहुत ही जिज्ञासा का विषय था कि सामने वाले मकान से कल की तरह आज रात को भी ज़ोर से रोने की आवाज़ें क्यों आ रहीं थीं। खिड़की से झांक कर देखा तो पाया खन्ना साहब की पत्नी प्रियंका ही रो रही थी।



साहस जुटाते हुए , उनके घर जाकर जब उसने प्रियंका से वज़ह पूछी तो मुश्किल से उसने कहा- "मेरे पिताजी ने मायके आने के लिए सख़्ती से मना कर दिया है! पति ने मुझसे किनारा कर लिया है। सास देवरानी के यहाँ चली गई हैं ! सब मुझे ही कोस रहे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 25, 2016 at 9:31pm — 9 Comments

उल्टी गंगा (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"मम्मा, छोड़ो भी अब यह सब! देशभक्त सैनिकों की तस्वीरें दिखाने, उनकी दिलेरी के किस्से सुनाने और देशभक्ति गीत और भाषण सुनाने से भी मुझ पर कोई असर नहीं पड़ने वाला!" -आदित्य ने ध्वज फहराते सैनिक पिता की तस्वीर एक तरफ रखकर अपनी माँ से कहा।



"तो तुम अपने पापा और दादा जी के सपने पूरे नहीं करोगे?"



"नहीं, मुझे नहीं रही कोई रुचि सैनिक जीवन में! क्या मिला है मुझे? न दादा जी का प्यार, न पापा का और न ही बड़े भाई का? सैनिकों की शहादत और सम्मानों से उनके परिजनों को प्यार नहीं, सिर्फ कुछ… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 23, 2016 at 12:29pm — 7 Comments

चाय के बोलते कप (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

मोर्निंग-वॉक से लौटते वक़्त आज ख़ान साहब मुहल्ले के कुछ घरों की खिड़की पर रखे चाय के कपों की कुछ दिलचस्प फोटो लेकर घर लौटे ही थे कि अपने घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर छज्जे पर भी चाय के दो कपों को देख कर चौंक गये। ये वाले कप पिछले महीने ही तो मेले से ख़रीद कर लाये थे। बड़ी हैरानी से बेगम साहिबा से उन्होंने पूछा- "क्यों जी, ये क्या माज़रा है, दो कप वहां क्यों रखे हुए हैं?"



"अरे, वो मालती बाई आती है न, अपने मुहल्ले की साफ.-सफ़ाई करने वाली, उसको चाय पिलाने के लिए! कभी-कभी उसके आदमी को भी!… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 19, 2016 at 7:45am — 13 Comments

सात सहेलियां, सात रंग (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"बार-बार मुझसे एक ही सवाल मत पूछो। पहले सात सहेलियों की यह तस्वीर देखो, फिर बताता हूँ तुम्हें कि मैं कल से अपसेट सा क्यों हूँ?" - बेडरूम में जाते हुए योगेन्द्र ने अपनी पत्नी से कहा।

"ये तो छह-सात लड़कियाँ हैं माँ दुर्गा मुद्रा में नृत्य करती हुई!"- पत्नी ने आश्चर्य से कहा।

"हाँ, ये वे सात सहेलियां हैं जो एक साथ मिलकर मेरे ग्रुप के लिए मंचीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया करती थीं!"

"तो इनका तुम्हारे मूड से क्या संबंध है?"

"सम्बंध है न.. इनमें से एक लड़की बलात्कार पीड़िता थी, दूसरी… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 16, 2016 at 1:55pm — 2 Comments

स्टिअरिंग पर ज़िन्दगी (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

ज़िन्दगी कार के स्टिअरिंग से बोली - "भाई, तुम भी ग़ज़ब करते हो ! पल भर में इंसान के सफ़र को नया रुख़ दे देते हो , इस लोक से उस लोक पहुंचा देते हो !"

यह सुनकर मौत बोली - "इसमें उसका क्या क्या कसूर? इंसान की बुद्धि को 'स्टिअर' तो मैं करती हूँ! मनचाही दिशा में मोड़ देती हूँ इंसानी बुद्धि को अपनी 'स्टिअरिंग' से! जब अपने पर आती हूँ न, इंसान के सारे ज्ञान और अनुभव का घमंड चूर करके पल भर में इंसान पर 'बुद्धि' या 'मति' वाले सारे मुहावरे और लोकोक्तियां लागू कर देती हूँ! चाहे वह शादी में शामिल…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 5, 2016 at 7:00pm — 7 Comments

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