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डॉक्टर सड्डन (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

मुश्किल से माँ-बाप सालों बाद अपने बेटों से मिलने मुंबई पहुंचे थे। एक के बाद एक पांचों मुंबई में बस गए थे और उनमें से एक खो दिया था। डर लग रहा था कि कहीं ग़लत धंधों में तो नहीं पड़ गये फ़िल्मी दुनिया में दाख़िला पाने के मोह में। दो दिन ही हुये थे माहिम में बड़े बेटे के घर में रुके हुए । बेटे की वास्तविक माली हालत उसकी सेहत और घर देख कर कुछ समझ में नहीं आ रही थी। एक दिन चावल न खाने की बात पर बेटा बाप पर बरस पड़ा।
 "अबे, बुढ़ऊ जो मिल रहा है चुपचाप खा ले, मेरी बीवी के पास इत्ता टाइम नहीं है रे कि तेरे लिए रोटियां सेंके!"
 "नहीं, बेटा, बाप है तेरा, ऐसे नहीं बोलते!"- अम्मा ने समझाया।
 "ये बाप है मेरा! आठवीं कक्षा में बार-बार फेल होने पर घर से बाहर निकाल देता था, तुम खिड़की से रोटियां देतीं थीं! ये वही बाप हैं न जो मेरे छोटे भाई को परीक्षा में फेल होने पर धूप में छत पर नंगा लिटाल कर डंडे से पीटता था!"
 "बेटा, भूल जा पुरानी बातें, तुम्हारे भले के लिए ही तो करता था, पर तुम्हें तो फ़िल्मी दुनिया भा रही थी, हीरो बनना था तुझे!"
 "हां देख ले अम्मा, हीरो नहीं तो लाइटमेन तो बन गया न। घर से न भागता, तो अब्बू की तरहा सुट्टा और सट्टा लगा रहा होता! देख, छोटे भाई को कैमरा मेन बना दिया, मंझला भी काम सीख गया है। और तेरे मोहल्ले के तीन-चार निकम्मे लौंडे भी मेरे अंडर में काम कर रहे हैं यहाँ! बस्ती के ग़रीब अनपढ़ बच्चों की कभी-कभार मदद भी कर देता हूँ अब! सब मुझे डॉक्टर सड्डन कहते हैं यहाँ..डॉक्टर सड्डन, समझीं!"
 "लेकिन बेटा तूने शराब पी-पीकर क्या हाल कर लिया है अपना! तुझे कितनी बीमारियाँ हो गई हैं, चल वापस अपने शहर चल । अपनी छोटी सी दुकान अब बढ़ा लेना, नया कारोबार वहीं जमा लेना। यहाँ की ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है!"-अब बाप ने रोते हुए समझाने की कोशिश की।
 "अबे चुप्प, कुछ भी कहे जा रहा है! वापस लौटने की तो सपने में भी नहीं सोचूंगा, इस फ़िल्मी दुनिया में मैंने अपना प्यारा चौथा भाई खोया है! अपनी आँखों के सामने लाईटमेन का काम करते बिज़ली के करेंट से मरते देखा है! उसके ख़्वाब मैं पूरे करूँगा!- इस बार बोलते- बोलते वह भी रो पड़ा, और फिर माँ-बाप भी।
फिर अब्बू को सीने से लगा कर वह रोते हुए बोला- "मुझे माफ़ कर दो, मेरी ज़िद की वज़ह से तेरा प्यारा बेटा चला गया! तुम्हें कैसे बताऊं अब्बू, यहाँ हमने ख़ुद को और अपने भाइयों को अंडरवर्ल्ड और दहशतग़र्दों के चंगुल से कैसे बचा रखा और अपनी फैमिली को!"

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 29, 2017 at 6:48am
मेरी इस लघुकथा पर समय देकर अनुमोदन व हौसला अफजाई के लिए सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय पाठकगण व सुधीजन।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2016 at 1:16pm
प्रस्तुति का अवलोकन कर प्रोत्साहन देने के लिए तहे दिल बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय तेज वीर सिंह जी।
Comment by TEJ VEER SINGH on March 3, 2016 at 12:07pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी!मानवीय संघर्ष की हृदय स्पर्शी प्रस्तुति!

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 2, 2016 at 4:09pm
समय देकर समीक्षात्मक टिप्पणियों से प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया नीता कसार जी व आदरणीया राहिला जी।
Comment by Rahila on March 2, 2016 at 3:33pm
फिल्म जगत की दुश्वारियों को उजागर करती अच्छी रचना।बहुत बधाई आपको आदरणीय उस्मानी जी! सादर
Comment by Nita Kasar on March 2, 2016 at 12:37pm
फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध को सटीक तरीक़े से प्रदर्शित किया है कथा के ज़रिये ।इतना आसान नही है वहाँ जमना।दूर के ढोल सुहावने होते है ।सार्थक कथा के लिये बधाई आद०शेख शहज़ाद उस्मानी जी।

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