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कोहरा (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

खुला दरवाज़ा देख कर वह सीधे अन्दर की ओर जाने लगी।

"शुभ प्रभात! आइये, अब कैसे आना हुआ?"

"भरी दोपहरी में अक्सर ख़ूब सताया है, सोचा ऐसे में इन्हें कुछ राहत दे दूँ! बच्चे तो होंगे न अंदर ?"- धूप ने अभिवादन स्वीकार कर झोपड़ी के दरवाज़े से कहा।

"नहीं, उन्हें भी सबके साथ काम पर जाना होता है भोर होते ही !" - दरवाज़े ने उत्तर दिया।

"इतने घने कोहरे में भी!"

"हाँ, अपने अपने पेट के लिए अपने हिस्से की कमाई के लिये..."

"ओह, यह कोहरा कैसे छंटेगा!" - यह कहकर धूप ने खुले दरवाज़े को फिर निहारा और शर्मिन्दा हो कर बाहर खेतों पर छा गई।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 6, 2016 at 7:54pm
अपना अमूल्य समय इस लघुकथा पर देकर मेरी स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब पवन जैन साहब, जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहब, जनाब तेज वीर सिंह साहब, जनाब लक्ष्मण धामी साहब व मोहतरमा प्रतिभा पाण्डेय साहिबा।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2016 at 11:36am

आ0 भाई शेख शहजाद जी इस कथा के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by pratibha pande on February 16, 2016 at 10:08am

  धूप झोंपड़ी के बच्चों को राहत देने पहुंची और वो बच्चे तो   कुहरे में ही  काम पर निकल गए थे ,और फिर उसके  बाद  धूप का शर्मिन्दा होना , दोनों ही बिम्ब अपने मर्म को बहुत अच्छे से संप्रेषित कर रहे हैं लघुकथा की सीमा में रहकर ,  बधाई आपको आदरणीय इस उत्कृष्ट रचनाकर्म पर 

Comment by TEJ VEER SINGH on February 14, 2016 at 5:36pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी!बेहतरीन प्रस्तुति!

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on February 14, 2016 at 11:58am

जनाब शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब , धूप और झोपड़ी को प्रतीक बनाकर कोहरे पर बहुत ही शानदार लघु कथा लिखी है आपने। ... दिली मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

Comment by Pawan Jain on February 14, 2016 at 11:22am

अच्छा प्रयोग,यह कोहरा कैसे छंटेगा ,मन को उद्वेलित करने वाला प्रश्न,बधाई शहजाद जी।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 13, 2016 at 3:21pm
स्नेहिल प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सतविंदर कुमार जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 13, 2016 at 3:20pm
लघुकथा के मर्म को सौदाहरण समझते हुए हौसला अफ़ज़ाई करने के लिए तहे दिल बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा राहिला साहिबा।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 13, 2016 at 2:29pm
वाह्ह्ह्!प्रतीकों का बेहतरीन प्रयोग।बहुत सुंदर रचना।बधाई आदरणीय।
Comment by Rahila on February 13, 2016 at 12:57pm
बहुत अच्छी रचना बन पढ़ी आदरणीय उस्मानी जी!मैं तो खुद भी रोज इस कोहरे के छंटने का इंतेजार कर रही हूं । जब गांवों के स्कूल बच्चों से भरे मिलें । बहुत बड़ी समस्या है निम्न और मजदूर वर्ग के बच्चों में, बच्चे पढ़ाई छोड़ मजदूरी कर रहे है ।बहुत बधाई आपको इस रचना के लिये । सादर

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