आदरणीय साथिओ,
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जनाब आसिफ़ ज़ैदी साहिब आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,गुणीजनों की बातों का संज्ञान लें,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
भोलेभाले लोग ठगों के आसान शिकार होते है।संदेशप्रद कथा के लिये बधाई आद० आसिफ़ ज़ैदी जी ।
बहुत खूब । गए पीसनेओर बैठ गए दलने ।
जनाब आसिफ़ साहिब आ दाब, अच्छी लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
अच्छी लघुकथा के लिए बधाई आसिफ़ साहब
क्षेत्रीय भाषा शैली में लिखी बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय आसिफ सरजी ।
दृष्टिहीन
धृतराष्ट्र को आभास हो रहा था कि संजय आज विचलित है।
" उस भयावह युद्ध का वर्णन मुझे सुनाते हुए भी तुम विचलित नहीं हुए थे संजय। आज क्यों विचलित हो ?' धृतराष्ट्र ने संजय का हाथ थाम लिया।
"युद्ध कहाँ समाप्त होते हैं महाराज। दिव्यदृष्टि मुझ अभागे का पीछा ही नहीं छोड़ती। "
" क्या देख रहे हो तुम इस भारत भूमि में ?" धृतराष्ट्र उतावले हो उठे।
"खेमे ही खेमे। कभी एक दूसरे में गडमड दिखते हैं तो कभी अलग अलग। "
"धर्म अधर्म के अलग अलग खेमे होंगे ना ?"धृतराष्ट्र की आवाज में अपने पुत्रों को अधर्म से अलग नहीं रख पाने की पीड़ा स्पष्ट थी।
'नहीं महाराज यहाँ तो धर्म की परिभाषा ही बदली दिख रही है। "
" और वो छलिया चालाक कृष्ण वो कहाँ है ? उसने तो हर युग में आने की बात कही थी ना। " धृतराष्ट्र की आवाज में पीड़ा के साथ दबा हुआ रोष भी था।
"कृष्ण कहीं नहीं है महाराज। हाँ उनका भेस धरे अलग अलग खेमों में ज्ञान बाँटते हुए लोग अवश्य दिख रहे हैं। और... और महाराज संजय भी हैं। "संजय की आवाज में पीड़ा मिश्रित व्यंग्य था।
" तुम जैसी दिव्यदृष्टि वाला संजय यहाँ भी है ! इस युग में भी ! असंभव। " धृतराष्ट्र अचंभित थे ।
"एक नहीं कई संजय हैं राजन। हर खेमे में अलग अलग। अपने खेमे के अनुसार युद्ध का वर्णन सुनाते हुए। "
कुछ पल के मौन के बाद धृतराष्ट्र ने काँपते हाथों से संजय का हाथ थाम लिया और पूछा " क्या मुझ जैसा अभागा दृष्टिहीन धृतराष्ट्र भी है ?"
" हाँ वो भी है। कई हैं। वस्तुतः हर युग में युद्ध का कारक दृष्टिहीन मोहग्रसित विवेक ही तो होता है । आप हर युग में हैं राजन।"
धृतराष्ट्र के काँपते हाथों को थपथपाते हुए संजय के हाथों में दो अश्रु बूँदें गिर पड़ीं।
मौलिक व् अप्रकाशित
आदाब। महाग्रंथ के ऐतिहासिक अहम पात्रों के कथोपकथन से वर्तमान के धृतराष्ट्रों, संजयों और छद्म कृष्णों की भूमिकाओं पर प्रहार करते हुए लोगों के दृष्टिहीन मोहग्रसित विवेक के केंद्रीय बिंदु को उभारती बेहतरीन सारगर्भित विचारोत्तेजक संदेशवाहक लघुकथाग्राफ़ी हेतु हार्दिक बधाई और आभार आदरणीया प्रतिभा जोशी पाण्डेय साहिबा। बढ़िया शिल्पबद्ध। बढ़िया शीर्षक।
बहुत सुंदर, पौराणिक इतिहास के उधाह्र्ण को वर्तमान की विसंगतियों से जोड़ी गई रचना अच्छी बनी है प्रतिभा जी, बधाई स्वीकार करें.. रचना को अभी थोडा और कसे, उम्दा बनेगी. रचना धृतराष्ट्र की अपेक्षा संजय के अपने व्यू पर अंत दर्शाया जा सकता है. समाप्त (सुझाव देना चाहुंगा कि रचना में व्याकरण चिन्हों का ध्यान अवश्य दें,)
हार्दिक आभार आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी
महाभारत आज भी जारी है और उनके सभी पात्र किसी न किसी रूप में आज भी दिखाई पड़ जाते हैं दुनियां में. बढ़िया रचना पौराणिक पत्रों को लेकर, बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आ प्रतिभा पांडे जी
हार्दिक आभार आदरणीय विनय जी
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